राजीव खंडेलवाल :
गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा को जो प्रचंड जीत मिली, वह न केवल ऐतिहासिक है, बल्कि बहुत कुछ अप्रत्याशित भी है। पश्चिम बंगाल के मार्क्सवादी सरकार के रिकार्ड 34 वर्ष के लगातार शासन के बाद भाजपा का दूसरा सबसे बड़ा यह रिकार्ड है। भाजपा की जीत की उम्मीद तो हर किसी को थी। परंतु गुजरात राज्य बनने के बाद जीत के समस्त रिकार्ड को ध्वस्त करते हुए ऐसी बंपर और बड़ी ‘‘अंग अंग फूले न समाने’’ वाली जीत की उम्मीद शायद स्वयं भाजपा को भी नहीं थी। यद्यपि वलसाड में प्रधानमंत्री ने कहा था ‘‘नरेन्द्र ने भूपेन्द्र को समस्त रिकार्ड ध्वस्त करते हुए जीत जिताने की उम्मीद अवश्य जताई थी’’। निश्चित रूप से इसका पूरा का पूरा एकमात्र श्रेय वहां के माटी के लाल, लम्बे समय तक मुख्यमंत्री रहे और देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ही जाता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एक बड़ी खासियत यह है कि चुनावी राजनीति में वे चुनाव को कभी भी हल्के में नहीं लेते हैं। चुनाव जीतने के लिए वे ‘‘आपद् काले मर्यादा नास्ति’’ किसी भी सीमा तक चले जाते हैं, भले ही वे कदम अन्यों की नजर में उनके कद व पद की गरिमा के अनुरूप होते हों अथवा नहीं। देश के इतिहास में किसी भी राज्य की विधानसभा का यह पहला चुनाव है, जहां प्रधानमंत्री मंत्री ने 39 रैली व सभाएं की (तीन बड़े रोड़ शो किये) जिसके द्वारा वे लगभग 134 से ज्यादा विधानसभा क्षेत्रों तक पहुंचे। विपरीत इसके राहुल गांधी ने मात्र दो 2 रैली की और 3 आदिवासी विधानसभा क्षेत्र तक ही पहुंच पाए। जबकि राजस्थान व मध्य-प्रदेश में जहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं, के चलते वे मध्य-प्रदेश में 12 दिन दे चुके हैं और राजस्थान में भी लगभग 18 दिन समय दे रहे है। राहुल गांधी की भारत जोड़ों यात्रा जो सिर्फ और सिर्फ राजनैतिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु पार्टी को मजबूत करने के उद्देश्य से निकाली गई है। रैली प्रारंभ होने के कुछ समय बाद ही तुरंत हो रहे चुनावी राज्य हिमाचल को इस यात्रा में न जोड़ना, गुजरात को लगभग न जोड़ना व अगले वर्ष होने वाले चुनावी राज्य मध्य-प्रदेश व राजस्थान को भर पर जोड़ना किस राजनैतिक समझ को दर्शाता या सिद्ध करता है? इससे समझा जा सकता है कि गुजरात से ‘‘आंखें चुराती’’ कांग्रेस चुनाव प्रारंभ होने के पूर्व ही मैदान छोड़ ‘‘आंखें फेर’’ चुकी थी। शायद कांग्रेस पार्टी को यह लगता होगा कि राहुल गांधी को पूरी ताकत से चुनावी अभियान में उतरने पर अपेक्षित सफलता न मिलने की आंशका में राहुल गांधी के नेतृत्व पर बड़ा प्रश्नचिन्ह फिर लग जायेगा?
विपरीत इसके भाजपा ने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात विधानसभा चुनाव की 15 महीने पूर्व से ही तैयारी शुरू कर दी थी। तदनुसार योजना अनुसार तब मुख्यमंत्री व पूरा का पूरा मंत्रिमंडल स्पीकर सहित को बदल दिया गया ‘‘सर सलामत पगड़ी तो हजार’’ और नये नवेले विधायक भूपेन्द्र पटेल के नेतृत्व में नई सरकार का गठन कर दिया। इसमें से भी 5 मंत्री के टिकट काटे गये जिसमें से 4 में भाजपा जीती। भाजपा नेतृत्व ने 27 सालों की बढ़ रही सत्ता विरोधी लहर को पढ़ लिया था। इसलिए उसकी काट के लिए कठोर और प्रभावी कदम उठाया गया जिसमें भाजपा को उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली। विपरीत इसके कांग्रेस नेतृत्व ने पिछले गुजरात विधानसभा चुनाव की उपलब्धि को बनाए रखने व बढ़ाने के लिए आवश्यक पसीना नहीं बहाया, जबकि उन्हें भाजपा से ज्यादा ताकत के साथ चुनौती मैदान में कूदना था, जैसा कि केजरीवाल की आप पार्टी कूदी। परिणाम स्वरूप कांग्रेस गुजरात के इतिहास में सबसे बुरी स्थिति में पहुंच गई। सच मानिए यदि गुजरात में कांग्रेस ‘आप’ समान मीडिया प्लेटफॉर्म में उतरती व भाजपा समान धरातल पर जनता के बीच जाती तो परिणाम इतने बूरे नहीं होते।
बडा प्रश्न गुजरात के संदर्भ में क्या 19 साल के भाजपा के ‘‘अंगूठी के नगीने‘‘ व 17 वर्ष के एंटी-इनकम्बेंसी फैक्टर (सत्ता विरोधी लहर) को दूर करने के लिए भी केन्द्रीय नेतृत्व नरेन्द्र
मोदी व अमित शाह गुजरात प्रयोग को दोहराएंगे? इस प्रश्न का उत्तर शायद जनवरी 2023 तक निश्चित रूप से मिल जायेगा। यह बात सिर्फ हवा में नहीं है, बल्कि राजनीति और मीडिया के क्षेत्रों में चल रही गर्म चर्चा में शुमार है। इस संभावित परिवर्तन को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा ने गुजरात चुनाव के बाद *एजेंडा आज तक* के महामंच में शामिल होकर प्रश्न का जवाब देते हुए यह कथन दिया कि गुजरात का प्रयोग अन्य राज्यों में किया जा सकता है, ऐसा कह कर मानो ‘‘कलम तोड़ कर रख दी’’ है व इस मुद्दे को और हवा दे दी है। इसका साफ संकेत मध्य-प्रदेश की ओर है। इसीलिए वरिष्ठ मंत्रीगण, विधायकगण व मुख्यमंत्री गुजरात के इस परिणाम से आंतरिक रूप से सुखी होने के बजाए "कालस्य कुटिला गति" से उत्पन्न तनाव होने से गुजर रहे होगे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ‘‘अशांतस्य कुतः सुखम्’’। परन्तु इस संभावित प्रयोग पर एक प्रश्नवाचक चिंह अवश्य लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुजरात के माटी के है, इसलिए वहाँ तो उन्होंने सफलतापूर्वक छक्का लगा दिया। परन्तु क्या मध्य-प्रदेश में भी वे उतने ही प्रभावशाली व उपयोगी सिद्ध होगें, यह देखने की बात होगी? शायद इसलिए यहां सत्ता के साथ संगठन में भी संगठन स्तर में भी आमूलचूल परिवर्तन होने की भी चर्चा है।
तीन प्रदेशों में हुए में चुनावों में तीनों पार्टियों भाजपा, कांग्रेस व आप को एक-एक प्रदेश में सत्ता मिली। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि तीनों जगह के जनादेश (हार-जीत एक साथ) को हृदय से स्वीकार करने में तीनों पार्टियों को हिचक हो रही है, क्योंकि देश की राजनीति की गत इस तरह की हो गई है। देश की राजनीति का यह एक बड़ा दुर्भाग्य है कि हारा हुआ दल जनता के जनादेश को शाब्दिक रूप में तो अवश्य शिरोधार्य करते हैं। परन्तु साथ ही वह ऐसे उनके विपरीत आये निर्णय के लिए विरोधियों द्वारा जनता को भ्रमित करने का आरोप भी जड़ देते है। जबकि स्वस्थ लोकतंत्र में हार के निर्णय को स्वीकार कर, जनता द्वारा तय किये गये विपक्ष के रोल को सफलतापूर्वक निभा कर, जनता के बीच जाकर, उनके सामने रखकर सत्तापक्ष की जन विरोधी नीतियों को अगले चुनाव में आने का प्रयास हारी हुई पार्टी को करना चाहिए। फिलहाल राजनीतिक पार्टियों में ऐसी स्वीकारिता का आत्मबल नहीं है।