क्या है दलबदल कानून


चैतन्य मिश्रा की कलम से:-


हाल ही में जिस ढंग से मध्यप्रदेश में चल रही सियासी उठापटक के बीच कांग्रेस और भाजपा में शह और मात का खेल जारी हैजिस तरह से  पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के मंगलवार को कांग्रेस से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थामने पर उनके समर्थक 22 विधायकों ने भी विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। इसके चलते 15 महीने पुरानी कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार संकट में घिरती  नज़र आ रही है उससे दल-बदल विरोधी कानून की पुनर्समीक्षा की मांग होने लगी है। इस तरह की घटनाएँ सिर्फ इसी राज्य में नहीं बल्कि कमोबेश भारत के अन्य राज्यों में देखने को मिल रही हैं। इसी का परिणाम है कि देश में दल-बदल विरोधी कानून की प्रासंगिकता को लेकर चर्चा होने लगी है।लोकतांत्रिक प्रक्रिया में राजनीतिक दल काफी अहम भूमिका अदा करते हैं और सैद्धांतिक तौर पर राजनीतिक दलों की महत्त्वपूर्ण भूमिका यह है कि वे सामूहिक रूप से लोकतांत्रिक फैसला लेते हैं।हालाँकि आज़ादी के कुछ ही वर्षों के भीतर यह महसूस किया जाने लगा कि राजनीतिक दलों द्वारा अपने सामूहिक जनादेश की अनदेखी की जाने लगी है। विधायकों और सांसदों के जोड़-तोड़ से सरकारें बनने और गिरने लगीं।दल-बदल विरोधी कानून ने राजनीतिक दल के सदस्यों को दल बदलने से रोक कर सरकार को स्थिरता प्रदान करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। 1985 से पूर्व कई बार यह देखा गया कि राजनेता अपने लाभ के लिये सत्ताधारी दल को छोड़कर किसी अन्य दल में शामिल होकर सरकार बना लेते थे जिसके कारण जल्द ही सरकार गिरने की संभावना बनी रहती थी। ऐसी स्थिति में सबसे अधिक प्रभाव आम लोगों हेतु बनाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं पर पड़ता था। दल-बदल विरोधी कानून ने सत्ताधारी राजनीतिक दल को अपनी सत्ता की स्थिरता के बजाय विकास संबंधी अन्य मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के लिये प्रेरित किया हैकानून के प्रावधानों ने धन या पद लोलुपता के कारण की जाने वाली अवसरवादी राजनीति पर रोक लगाने और अनियमित चुनाव के कारण होने वाले व्यय को नियंत्रित करने में भी मदद की है


 दलबदल रोकने की दिशा में  पहला कदम 
दलबदल रोकने के लिए कानून बनाने की पहली पहल 1967 में में हुई थी जब केंद्र में तो कांग्रेस की सरकार बन गई थी लेकिन सात राज्यों में वह हार गई थी. इनमें से अधिकतर में कांग्रेस के विधायक दूसरे दलों में चले गए थे. उस दौरान यह कहा गया था कि विधायकों को मंत्री पद का लालच दिए जाने की वजह इसे बढ़ावा मिल रहा है. इसलिए इसके खिलाफ प्रावधान किए जाएं. दलबदल की समस्या की पड़ताल के लिए वाई बी चह्वाण पैनल बना था. इस पैनल की रिपोर्ट के बाद 1973 में उमाशंकर दीक्षित (इंदिरा सरकार) और फिर 1978 में शांति भूषण (मोरारजी देसाई सरकार) की अगुआई में इस समस्या को खत्म करने के कदम उठाए गए. लेकिन दोनों कोशिश नाकाम रही.
कब बना दलबदल विरोधी कानून 
आखिरकार साल 1985 में राजीव गांधी सरकार संविधान में संशोधन करने और दलबदल पर रोक लगाने के लिए एक बिल लाई और 1 मार्च 1985 को यह लागू हो गया. संविधान की 10वीं अनुसूची, जिसमें दलबदल विरोधी कानून शामिल है, को इस संशोधन के जरिये संविधान में जोड़ा गया.  अगर विधायकों या सांसदों ने व्हिप के खिलाफ वोट दिया और संसद से बाहर बयान तो उनकी सीट चली जाएगी  अगर विधायकों ने एक तिहाई सदस्यों के साथ पार्टी में विभाजन किया तो उनकी विधायकी नहीं जाएगी, लेकिन किसी दूसरी पार्टी में विलय की स्थिति में विधायकी तब नहीं जाएगी जब दो तिहाई सदस्यों के साथ यह कदम उठाया गया हो. संसद या विधानसभा में दलबदल की कार्यवाही के मामले में संबंधित अध्यक्ष का फैसला अंतिम होगा.
दलबदल मामले में स्पीकर की भूमिका पर सवाल 
इन संशोधनों की संसद में आलोचना हुई. कहा गया कि इससे विधायक और संसद सदस्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कम हो जाएगी. साथ ही इससे स्पीकर के पद पर भी असर पड़ेगा. लेकिन आखिरकार राजीव गांधी के कार्यकाल में यह बिल पास हो गया. लेकिन इस कानून को ठीक इसके बाद ही इसे कसौटी पर कसने की नौबत आ गई जब वीपी सिंह और चंद्रशेखर दोनों सरकारों को दलबदल की समस्या का सामना करना पड़ा. इस कानून के बाद सदन के अध्यक्ष के पद के काफी राजनीतिकरण की संभावना पैदा हो गई थी. फिर इस मामले को अदालत में ले जाया गया और वहां पूछा गया कि संसद और विधानसभा के बाहर सांसद और विधायकों का कैसा आचरण उन्हें दल बदल के दायरे में नहीं रखेगा. दलबदल हुआ है या नहीं यह तय करने का अधिकार किस हद तक स्पीकर को दिया जाएगा. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्पीकर को सबसे ऊपर रखा. हालांकि यह भी कहा कि स्पीकर के फैसले की न्यायिक समीक्षा हो सकती है.
2003 के संशोधन में क्या हआ
 दलबदल विरोधी कानून में आखिरी संशोधन 2003 में किया गया.अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने इसकी समीक्षा के लिए एक बिल पारित किया. कमेटी बनाई गई और इसके चीफ प्रणब मुखर्जी बनाए गए. इसमें एक तिहाई सदस्यों के साथ पार्टी के विभाजन करवाने वालों को संरक्षण देने का प्रावधान खत्म कर दिया गया. साथ ही यह 1967 में वाईबी चह्वाण की गई सिफारिश को शामिल कर लिया गया, जिसमें कहा गया था कि मंत्री परिषद का आकार सीमित किया जाए. साथ ही यह व्यवस्था भी शामिल की गई कि दलबदल करने वाला विधायक या सांसद दोबारा चुने जाने पर ही मंत्री बने. हालांकि अब तक यह देखने में आया है कि इन संशोधनों का दलबदल पर कोई बड़ा असर नहीं दिखा है.


एक तिहाई सदस्यों के साथ विभाजन करने वालों को संरक्षण वाले प्रावधान को खत्म किए जाने से राजनीतिक दलों ने बड़ी संख्या में दलबदल करने को प्रोत्साहित करना शुरू किया. मंत्री पद से महरूम होने से बचने के लिए विधायकों और सांसदों ने सदन की सदस्यता से त्याग पत्र देना शुरू किया. खुद को अयोग्य घोषित होने से बचाने के लिए उन्होंने त्यागपत्र का कदम उठाना शुरू किया. इसके साथ ही संसद और विधानसभा स्पीकर्स ने राजनीतिक मामलों में दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया और सरकारें बनाने और गिराने लगे. दल बदल विरोधी कानून में स्पीकर के लिए इसकी प्रक्रिया शुरू करने के लिए कोई टाइमफ्रेम निर्धारित नहीं है. राजनीतिक स्थिति को देखते हुए स्पीकर्स ने या तो दलबदल के मामले में तुरंत फैसला दिया फिर मामलों को लटकाया रखा,दल-बदल विरोधी कानून में संशोधन कर उसके उल्लंघन पर अयोग्यता की अवधि को 6 साल या उससे अधिक किया जाना चाहिये, ताकि कानून को लेकर नेताओं के मन में डर बना रहे।दल-बदल विरोधी कानून संसदीय प्रणाली में अनुशासन और सुशासन सुनिश्चित करने में अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है, लेकिन इसे परिष्कृत किये जाने की ज़रूरत है, ताकि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र सबसे बेहतर लोकतंत्र भी साबित हो सके कर्नाटक में पिछले दिनों जो हुआ,और जो अब मध्यप्रदेश में जो हो रहा है  उससे साफ है कि तीन दशकों के बाद भी दलबदल विरोधी कानून, दलबदल रोकने में नाकाम रहा है.


 


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