राजनैतिक मूल्य और रिजॉर्ट राजनीती


विनोद पांडेय:-


उठक -पटक की नीति ही तो राजनीती ,
खटक से घटक को खूब होड़ लेने दो ,
देश के विकास का प्रयास भी करेंगे कभी ,
अभी निजी शक्ती का हिसाब जोड़ लेने दो ,
रक्षा की , सुरक्षा की , व्यवस्था की न बात करो ,
अश्व मेघ यज्ञ है , ये अश्व छोड़ लेने दो ,
वायदे निभाएंगे , गरीबी भी मिटायेंगे जी ,
पहले हमें आपस में ही सर फोड़ लेने दो ,
पहले हमें आपस में ही सर--------------,
मध्य प्रदेश की राजनीती में घट  रहे पूरे घटनक्रम में  गोविन्द व्यास जी की ये कविता चरितार्थ होती है ,भारत की राजनीति अपने संविधान के ढाँचे में काम करती हैं, क्योंकि भारत एक संघीय संसदीय, लोकतांत्रिक गणतंत्र हैं, जहाँ पर राष्ट्रपति देश का प्रमुख होता हैं और प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होता हैं। भारत एक द्वि-राजतन्त्र का अनुसरण करता हैं, अर्थात, केन्द्र में एक केन्द्रीय सत्ता वाली सरकार और परिधि में राज्य सरकारें।जिसे जनता सीधे तौर पर चुनती है मतलब लोकतंत्र  है ,लोकतंत्र सरकार की एक प्रणाली है जो नागरिकों को वोट देने और अपनी पसंद की सरकार का चुनाव करने की अनुमति देती है मतलब  जनता की, जनता द्वारा तथा जनता के लिये ,लेकिन आज के दौर में यह मजाक बन गया है अगर हम पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनावो में चाहे वो  महारष्ट्र कर्णाटक गोवा या फिर मध्यप्रदेश हो सभी जगह राजनैतिक दल सरकार बनाने की होड़ में जनता के मुद्दे को दरकिनार कर अपना मतलब साधने में दिखती नज़र आयी ,जनतंत्र मात्र वोटों का खेल नहीं है, यह एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें कुछ नियमों का पालन होना चाहिए और कुछ परम्पराओं का आदर होना चाहिए और कुछ मूल्यों के अनुसार आचरण होना चाहिए। पर मप्र की राजनीति के इस खेल में जनतंत्र के सारे नियम, परम्पराएं और मूल्य ध्वस्त हुए हैं।मध्य प्रदेश में सत्ता परिवर्तन को लेकर सियासी चालें खूब चली गई। राजनीति के मैदान से शुरू लड़ाई, सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई और सूबे के मुखिया कमल नाथ को फ्लोर टेस्ट के लिए सदन में आना पड़ा। राजनीति के इस खेल में सूबे के मुखिया कमल नाथ कमजोर हो गए है। मुख्यमंत्री ने दावे और इस उठापटक के बावजूद उनकी सरकार को विधानसभा में बहुमत साबित करना पड़ रहा है। इस घटनाक्रम ने मध्य प्रदेश की राजनीति में भूचाल ला दिया है। यह पहली बार नहीं  ऐसा पहले भी हुआ है,  विधायकों की खरीद-फरोख्त के आरोप ही नहीं लगे, विधायकों के अपहरण और सुरक्षा के नाम पर उन्हें जानवरों की तरह बाड़े में रखना भी वास्तविकता बना। यह बात दूसरी है कि विधायकों के ये बाड़े पांच सितारा होटल थे। सत्ता के इस शर्मनाक खेल में मप्र की राजनीति के सभी पक्षों की भूमिका पर उंगली उठी है।सरकार को सत्ता से हटाना विपक्ष का कर्तव्य है और यह भी कहा गया कि जब अवसर थाली में परोस कर पेश किया गया है, तो उसका उपयोग न करना राजनीतिक मूर्खता ही कहलाएगी। सत्ता में आना, सत्ता में बने रहना और सत्ता हथियाने की कोशिश करना भले ही जायज राजनीति हो, पर न तो विपक्ष का काम सरकार को हटाना मात्र होता है और न ही गलत तरीके अपनाकर सत्ता पाना या हथियाना जायज राजनीति है। देश  के राजनेताओं को विधायकों की खरीद-फरोख्त, अपहरण, जोर-जबर्दस्ती एवं प्रलोभन देने के आरोपों का जवाब जनता को देना ही होगा। जनता यह भी जानना चाहेगी कि विधायकों की खरीद-फरोख्त के आरोपों की सच्चाई क्या है और वे लाखों-करोड़ों रुपये आते कहां से हैं, जिससे विधायक खरीदे जाते हैं अथवा जिनके बल पर विधायक पांच सितारा होटलों में ठहराए जाते हैं।यह एक अप्रिय घटना है, जिस पर शर्म भी आनी चाहिए और चिंता भी होनी चाहिए। राजनीति में मूल्यों और आदर्शों का यह क्षरण सचमुच चिंतनीय है। सच बात तो यह है कि राजनीति के इस खेल में सरकार भले ही गिर  गई हो, पर जीता कोई नहीं है। सब हारे हैं। सवाल सिर्फ इतना-सा है कि इस हार का अहसास कितनों को होता है। जिस तरह का राजनीतिक माहौल आज देश में बना है, कहना चाहिए, बनाया जा रहा है, उसमें दिखाई यह दे रहा है कि या तो हमारे राजनीतिक दल हमारे मतदाता को विवेकहीन मानते हैं, या फिर इतना भोला कि उसे बरगलाया जा सकता है। अर्थात‍् किसी भी राजनीतिक दल को मतदाता की राय से जैसे कोई मतलब ही नहीं है। कठोर हैं यह शब्द पर कहना पड़ता है कि हमारे राजनीतिक दल या तो मतदाता को अपनी जेब में समझते हैं , मतदाताओं के प्रति राजनेताओं और राजनीतिक दलों का यह रुख कुल मिलाकर जनतांत्रिक मूल्यों और भावनाओं का अपमान ही है। मज़े की बात यह है कि कुर्सी के इस किस्से में सारे राजनीतिक दल दुहाई मतदाता के हितों की ही देते हैं।उत्तर यही है कि हमारे राजनीतिक दल मतदाता को बरगलाने लायक मानते हैं। मानते हैं कि मतदाता को प्रलोभन देकर खरीदा जा सकता है। यह धारणा जनतंत्र का अपमान है। और यह स्थिति जनतंत्र की असफलता का संकेत है। भावनात्मक मुद्दे उछालकर सच्चाई को परदे में रखने की राजनीति सत्ता तक पहुंचने में मददगार हो सकती है, पर जनतांत्रिक मूल्यों का तकाज़ा है कि मतदाता को खिलौना न समझा जाये, उसके निर्णय का सम्मान किया जाये। यहीं, मतदाता को भी अपने विवेक पर भरोसा करने की आवश्यकता है। क्यों वह सत्ता की भूख को नहीं पहचानता? क्यों वह अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों से पूछता नहीं कि उसकी अवहेलना का अधिकार उन्हें किसने दिया है? यह सबको याद रखना होगा कि स्वतंत्र और सशक्त मतदाता ही जनतंत्र की ताकत होता है, जनतंत्र की सफलता की कसौटी भी।जनता का उपहास उड़ाने में कोई भी दल पीछे नहीं है





 


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