पहलगाम हमला ,पर्यटन की धरती पर खून की बारिश



देश की "स्वर्गभूमि" कश्मीर एक बार फिर लहूलुहान है। पहलगाम की बैंसरन घाटी में 26 निर्दोष पर्यटकों की हत्या कर दी गई,धर्म पूछकर, पहचान के आधार पर। जब निर्दोष पर्यटकों पर गोलियां बरसाईं गईं, तो वहां की हवाएं तक सिसकने लगीं। बेगुनाह लोग जिनमें मुस्कान थी, सपने थे, उत्सव की योजना थी अब हमेशा के लिए खामोश हो चुके हैं।यह घटना हमें एक बार फिर उस कड़वी सच्चाई से रूबरू कराती है कि आतंकवाद आज भी एक जीवित और सुनियोजित खतरा है। बीस से अधिक पर्यटकों की निर्मम हत्या और दर्जनों के घायल होने की खबर ने पूरे देश को झकझोर दिया है। यह हमला उस मिथक को भी तोड़ता है जिसमें माना जाता था कि आतंकी संगठन कश्मीर के पर्यटन स्थलों पर हाथ नहीं डालते क्योंकि यह वहां की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। लेकिन इस बार, आतंकवादियों ने इसी रीढ़ को तोड़ने की नीयत से सीधा हमला किया है।जम्मू-कश्मीर की अर्थव्यवस्था में पर्यटन का बड़ा हिस्सा है। यह रोजगार, व्यापार और सामाजिक संपर्क का एक सशक्त जरिया है। आतंकी अब इस बात को समझ चुके हैं कि डर का सबसे बड़ा असर तब होता है जब वह जनता के बीच गहराई से समा जाए। पहलगाम जैसे शांत पर्यटन स्थल को निशाना बनाकर आतंकियों ने न सिर्फ देश-दुनिया के पर्यटकों को डराने की कोशिश की है, बल्कि उन्होंने सीधे-सीधे वहां के आर्थिक ढांचे पर हमला बोला है।जुलाई में शुरू होने वाली अमरनाथ यात्रा का मार्ग भी पहलगाम से होकर ही गुजरता है। इस लिहाज से यह हमला महज पर्यटकों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य धार्मिक यात्राओं को प्रभावित करना और सांप्रदायिक तनाव पैदा करना भी है। इस घटना ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या सरकार की तरफ से किए गए तमाम दावे चाहे वह धारा 370 हटाने के हों, नोटबंदी के हों या लोकतांत्रिक प्रक्रिया को फिर से बहाल करने के वास्तविकता में आतंकवाद पर अंकुश लगाने में सफल हुए हैं? जवाब है नहीं।बीजेपी सरकार के तमाम दावों और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर किए गए कठोर फैसलों के बावजूद आतंकी घटनाएं लगातार घटित हो रही हैं। सुरक्षा बलों, खुफिया एजेंसियों, मिलिट्री इंटेलिजेंस, गृह और रक्षा मंत्रालय के बीच समन्वय का अभाव अब जानलेवा हो चुका है। पहलगाम हमला इसी असंवेदनशील और असंगठित सुरक्षा ढांचे की पोल खोलता है।लेकिन इस निराशा के बीच एक उम्मीद की किरण भी है। अब कश्मीर की स्थानीय आबादी भी आतंकियों के खिलाफ खुलकर आक्रोश जता रही है। यह बदला हुआ रुख बताता है कि आम कश्मीरी अब हिंसा और कट्टरपंथ से तंग आ चुका है। यह सरकार और लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए एक सुनहरा अवसर है, बशर्ते वे इस जन-भावना को समझें और भरोसे का माहौल बनाएं।आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई कब लड़ी जाएगी? वह अंतिम लड़ाई अब तक क्यों नहीं लड़ी गई जिसका वादा ग्यारह साल पहले किया गया था? कब तक देश आतंकवाद का शिकार होता रहेगा ? अब वक्त है कि सियासी बयानबाज़ी को किनारे रखकर आतंकवाद के विरुद्ध ठोस और समन्वित रणनीति बनाई जाए। कश्मीर सिर्फ एक भूमि नहीं, भरोसे का प्रतीक है। उसे डर, दहशत और राजनीति से मुक्त करना अब सिर्फ ज़रूरी नहीं, अनिवार्य है।

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