कोरोना के खौफ में दफन होती संवेदनाएं

अपनों के आखिरी सफर में नसीब नहीं हो रहे अपनों के कंधे...


रघु मालवीय..... ✒️


भोपाल। लोगों के दिलों दिमाग में कोरोना का खौफ इस कदर हावी है कि वह अपनों की मौत पर उसके आखिरी सफर में कंधा देना तो दूर, शवयात्रा में जाने से भी कतरा रहा है। बिहार के दरभंगा से भी इसी तरह का एक मामला सामने आया है,जिसमें एक महिला अपने पति के शव के साथ 24 घंटे दो छोटे बच्चों के साथ बैठी रही,पति के अंतिम संस्कार के लिए न तो मृतक के भाई आगे आए और न ही अन्य रिश्तेदार व गाँव वाले। गाँव के मुखिया की सूचना के बाद प्रशासन ने मृतक का अंतिम संस्कार कराया। इसी तरह यूपी,महाराष्ट्र और दिल्ली से भी कई मामले सामने आए हैं जिसमें कोरोना के खौफ के आगे मानवता और रिशता तार-तार हो गये। दो-तीन बच्चों और नाती-पौते से भरा पूरा परिवार के मुखिया का अंतिम संस्कार एक लावारिश लाश की तरह हो जाता है और बेटों की आंख में पिता के जाने के गम से ज्यादा कोरोना का खौफ दिखाई देता है। इसी तरह एक बेटा अपनी मां को और एक भाई अपने मृत भाई के अंतिम संस्कार करने से कोरोना के आगे घुटने टेक देता है। संवेदनहीनता के ऐसे कई किस्से देशभर से देखने और सुनने को मिल रहे हैं। इस तरह के मामले हमारे शहर भोपाल और इन्दौर में भी सुनने और पढ़ने को मिले है। इस कोरोना के खौफ ने जब अपनों को अपने से पराया कर दिया,तो इन लाशों को सरकारी अमले के उन अंजान कर्मचारियों ने अपनाकर उनका अंतिम संस्कार किया, या फिर सामाजिक संस्था ने आगे आकर मानवता का फर्ज निभाते हुए कई लाशों को कब्रिस्तान में दफनाया। और तो और जो लोग अपने किसी रिश्तेदार या परिचित की मौत होने के तीसरे दिन अस्थियां सर्जन के लिए शमशान घाट बड़ी श्रद्धा के साथ जाते थे,फिर उन अस्थियों को गंगाजी या किसी पवित्र सरोवर में विसर्जित करने जाते थे,आज उनका वह श्रद्धाभरा भाव कहां चला गया। आज दिल्ली और उत्तर प्रदेश के कई शहरों में शमशान घाट पर बड़ी संख्या में अस्थियां रखी हुई थी। जब इन्हें लेने कोई आगे नहीं आया तो इन अस्थियों को फेंक दिया गया। क्या कोरोना का खौफ अपनों की जुदाई से भी ज्यादा बड़ा है?


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