अब ‘‘अंतिम संस्कार‘‘ भी ‘‘मूल संवैधानिक अधिकार‘‘ नहीं रहा?

‘‘अत्याचार‘‘, ‘‘अन्याय‘‘ व ‘‘अनाचार‘‘ का ‘‘अपमिश्रण‘‘!हाथरस कांड!


राजीव खण्डेलवाल:-


एक और निर्धन, अबला ‘‘निर्भया‘‘ ‘‘हाथरस‘‘ की दरिंदों की वहशी नजरों का शिकार हो गई। जिसकी ‘‘गूंज‘‘ ने देश को पुनः आंदोलित कर दिया है। उक्त पाशविक कृत्य और उसके बाद का घटनाक्रम अत्यंत दर्दनाक, वीभत्स, हृदय विदारक व आत्मा को झकझोर ने वाला है। शायद इसीलिये सर्वत्र इस घटना की ठीक वैसी ही घोर निंदा व भर्त्सना की जा रही है, जैसे कि हर एक ‘‘निर्भया‘‘ घटना की ‘अमूमन’ प्रतिक्रिया होती है, जो अब एक ‘दस्तूर’ (रूटीन) सी बन गई है। चूंकि दुर्भाग्यवश हम अपना दायित्व यही (निंदा) तक सीमित मानते हैं, इसलिए इस तरह की घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। इसीलिए पूरे देश में कहीं न कहीं, ऐसी दर्दनाक, कलंकित की जाने वाली घटनाएं, कुछ-कुछ समय के अंतराल में, घटित होती जा रही है। ‘‘हाथ कंगन को आरसी क्या’’। इस घटना के बाद भी उत्तर प्रदेश के बलरामपूर में, राजस्थान में ‘‘बारां‘‘ सहित 16 घटनाएं, मध्यप्रदेश के खरगोन जिले के मारूगढ़ से लेकर छत्तीसगढ व पोंडेचेरी (पुदुचेरी) में भी ऐसी शर्मनाक घटनाएं निरंतर घटित हुई है। अतः इस ‘‘भयावह‘‘ स्थिति को रोकने के लिए समाज को सही राह व दिशा दिखाने की आवश्यकता है। इसके लिए निश्चित रूप से समस्त समाज सुधारकों, प्रतिष्ठित धर्मगुरुओं और बुद्धिजीवी वर्ग को आगे आना ही होगा,और समाज खासकर युवा वर्ग को कड़ी नैतिकता व कठोर आत्म अनुशासन की शिक्षा देनी ही होगी। तभी हम स्थिति में कुछ सुधार की उम्मीद कर सकते हैं। शिक्षा देने के पूर्व ‘‘शिक्षक‘‘ को भी स्वयं ‘‘नैतिकता व अनुशासन‘‘ की कड़ी परीक्षा से गुजरना होगा। तभी वे ‘‘विद्यार्थियों‘‘ को सही शिक्षा देने में सक्षम व सफल हो पाएंगे। केवल कानून भर बना देने से ऐसी घटनाएं रुकने वाली नहीं है, जैसा कि हम स्वयं भी देख रहे हैं। वर्ष 2013 में निर्भया कांड के बाद गठित ‘‘जस्टिस वर्मा समिति’’ की अनुशंसा के आधार पर अपराधिक कानून संशोधन अधिनियम 2013 के द्वारा कठोर प्रावधान किये जाने के बावजूद ऐसी घटनाएं निरंतर हो रही हैं। मतलब समस्या कानून की नहीं, बल्कि उसके धरातल पर प्रभावी क्रियान्वन को लेकर है।


‘भारतीय संस्कृति’ की चिंता व उसकी रक्षा करने का सबसे अधिक दंभ भरने वाली भाजपा को भी अपनी संस्कृतिक पहचान बचाए रखने के लिये राजनीति से परे ‘‘संघ‘‘ के माध्यम से कुछ न कुछ रचनात्मक आयाम देते हुए कार्य योजना बनाकर पूरी ताकत और क्षमता के साथ धरातल पर उतर कर कार्य करना ही होगा। अन्यथा देश अनैतिकता के जिस गहरे सागर में गोते लगा रहा है, उसके रसातल में चले जाने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा, और तब ‘पाशविकता’ के इस दुष्चक्र से उबर पाना बहुत ही मुश्किल होगा।इस ‘‘क्रूरता पूर्ण‘‘ घटना का एक सबसे बड़ा ‘दुखदाई‘ पहलू यह भी है, जो शायद पहले कभी घटित नहीं हुआ, वह परिवार की ‘‘तथाकथित सहमति‘‘ के नाम पर ‘‘निर्भया‘‘ का ‘‘अंतिम दाह संस्कार‘‘ माता-पिता की अनुपस्थिति में उन्हे अंतिम दर्शन कराये बिना, गहन रात्रि 02 बजे के लगभग कर दी गई। किन परिस्थितियों में? क्यों? और क्या ऐसा किया जाना अपरिहार्य था? शासन और प्रशासन का इस संबंध में जो कुछ भी स्पष्टीकरण आया है, वह बहुत ही शर्मनाक और लचीला है। इससे तो यही लगता है कि, नागरिक शासन नाम की कोई चीज ही नहीं रही। प्रश्न यह है कि प्रशासन को परिवार से तथाकथित सहमति लेकर स्वयं अंतिम संस्कार करने की आवश्यकता क्यों पडी? यदि ‘‘निर्भया का मृत शरीर‘‘ परिवार को देने में कोई दंगा- फसाद, मारकाट या किसी बड़े झगड़े या उपद्रव की आशंका थी तो, क्या प्रशासन ने आईबी, एलआईबी या अन्य खुफिया एजेंसीज की ऐसी तथाकथित रिपोर्ट को जनता या उसके परिवार के सामने रखा?। यद्यपि डीजीपी ने दावा किया है व एडीजी (लाॅ एण्ड आर्डर) प्रशांत कुमार का यह कहना है कि, परिवार की सहमति से ही प्रशासन ने अंतिम संस्कार किया। लेकिन ‘‘निर्भया’’ की माता लगातार स्पष्ट रूप से कह रही हैं कि, उन्होंने प्रशासन से ‘‘अंतिम दर्शन‘‘ व हल्दी आदि की अंतिम ‘‘रस्म अदायगी‘‘ करने हेतु ‘‘बिटिया‘‘ को घर लाने के लिए खूब ‘‘असफल गुहार‘‘ लगाई। हिन्दू धार्मिक परंपरा व कर्म कांड अनुसार पिता के जीवित रहने पर अविवाहित बेटी का अंतिम संस्कार सामान्यतः पिता ही करते हैं। एडीजीपी इस बात की कोई सफाई नहीं दे रहे है कि, जिस तथाकथित ‘‘परिवार‘‘ से सहमति ली गई, उसमें ‘‘निर्भया‘‘ के माता-पिता भी शामिल थे? जबकि माता का बयान लगातार इसके विपरीत आ रहा है। यद्यपि पिता की मुख्यमंत्री से बातचीत के दौरान योगी ने अंतिम दर्शन न हो पाने के लिए खेद जरूर व्यक्त किया है। जैसा कि निर्भया के पिता ने मीडिया को बताया। तो, क्या अब मुख्यमंत्री एडीजीपी के खिलाफ गलत बयानी के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करेगें? जैसा कि हाल में ही मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इसी स्तर के एक पुलिस अधिकारी को पारिवारिक हिंसा का दोषी मानते हुए सस्पेंड कर दिया। पुलिस अधीक्षक का यह कथन कि डेड़ बाड़ी ‘‘खराब‘‘ हो रही थी, अतः रात्रि 02 बजे (हिन्दू रीति रिवाज के विपरीत) दाहसंस्कार कर दिया गया। नेताओं या वीआईपीज की ‘‘बॉडीज‘‘ तीन-तीन दिनों तक सुरक्षित रखी जा सकती है?लेकिन एक गरीब, निर्बल, निरीह जो ‘‘पहचान‘‘ का मोहताज है (शायद देश की पहचान भी यही हो गई है) जो अन्तयोदय अर्थात अंतिम छोर में खड़ा वह व्यक्ति है, जिसे उन पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने पहचान दिलाई, जिनकी जंयती अभी कुछ ही दिन पूर्व मनाई गई थी। उसकी ‘‘लाडली‘‘ के ‘‘मृत शरीर‘‘को 6 घंटे सुरक्षित रखने का प्रंबंध नहीं किया जा सकता था? ‘‘निर्भया‘‘ की एक अंतिम इच्छा भी थी, कि यदि उसकी मृत्यु हो जाये तो, उसे घर अवश्य ले जाया जाय, वह भी पूरी नहीं की गई। जबकि आंतकवादियों की फांसी पर लटकाने के पूर्व भी उनकी अंतिम इच्छा को पूरा करने का प्रयास अवश्य किया जाता है। कड़ी सुरक्षा के साथ गांव को लगभग छावनी बना कर स्वयं प्रशासन ने अंतिम संस्कार किया, और अगले दिन भी मीडिया व माननीय नेताओं को रोकने के लिये कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की गई, तब वैसे ही कड़ी सुरक्षा पीड़ित परिवार को उपलब्ध करा कर परिवार के लोगों को अंतिम संस्कार क्यों नहीं करने दिया गया? जो उनका मूलभूत अधिकार था? इसका कोई जवाब शासन-प्रशासन के पास नहीं है। सामान्यतः किसी डकैत, दुर्दांत अपराधी या आतंकवादी के एनकाउंटर में मारे जाने पर या मृत्यु होने पर ही प्रशासन सुरक्षा की दृष्टि से इस तरह की कार्यवाही करता है। परंतु किसी बड़े ‘‘नेता‘‘ की अंतिम शव यात्रा में किसी अवांछित बड़ी घटना होने की आशंका में प्रशासन मुस्तैदी के साथ पूरी सुरक्षा व्यवस्था करता है। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में सरकार का यह संवैधानिक दायित्व एवं कर्तव्य है, और एक नागरिक का भी यह संवैधानिक अधिकार है कि, न केवल उसकी जान माल की सुरक्षा की गारंटी प्रशासन सुनिश्चित करें, बल्कि उसके धार्मिक अधिकारों की भी रक्षा का दायित्व भी सरकार का ही है। इस घटना का सबसे दुखद पहलू यह है कि, निर्भया का परिवार ‘‘गरीब‘‘ है और स्वतंत्रता के 73 वर्ष बाद आज भी देश में ‘‘गरीब व्यक्ति‘‘ की कोई ‘‘आवाज‘‘ नहीं है, और न ही कोई सुनवाई है। इस घटना ने उक्त धारणा को पुनः दुखद रूप में सही सिद्ध कर दिया है। संवेदनहीन प्रशासन ने ‘‘निर्भया‘‘ की माता की रोने बिलखने की आवाज को अनसुनी कर रात के 2ः00 बजे ‘‘निर्भया‘‘ का अंतिम संस्कार करके शायद उत्पन्न या उत्पन्न होने वाली अवांछित ‘‘स्थिति‘‘ के भय को तो जरूर दूर कर दिया हो। परंतु इस अनैतिक और लगभग अवैधानिक कृत्य से उत्पन्न उनकी आत्मा पर उपजे बोझ को वह शायद ही दूर कर पाएंगे। ठीक लगभग इसी प्रकार कोरोना वायरस से वालों मरने वालों का अंतिम संस्कार की प्रक्रिया भी शासन के निर्देशानुसार मात्र 5 परिजनों की उपस्थिति में संपन्न हो रही है। महामारी अधिनियम के अंतर्गत अंतिम संस्कार शांतिपूर्ण रूप से सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय प्रशासन मुस्तैदी के साथ खड़ा रह कर कानून का पालन करवाता है। तब वही मुस्तैदी से इस ‘‘निर्भया‘‘ को कोविड-19 का एक पॉजिटिव ही मानकर परिजनों को अंतिम दाह संस्कार करने की अनुमति क्यों नहीं दी जा सकती थी? इस प्रश्न का जवाब कभी नहीं मिलेगा? इसके पूर्व मैं लिख चुका हूं कि मृत्यु की इस दुखद घड़ी में जब व्यक्ति का अपना ‘‘स्वर्गवासी‘‘ हो जाता है, तो वह वैसे ही असीम दुख से मानसिक तनाव में रहता है। दाह संस्कार के पश्चात धार्मिक रीति रिवाज के साथ अंतिम तेरह दिनों के कर्म कांड निर्वहन व पालन करने में, उसका दुख दर्द बंटकर, कुछ कम हो जाता है। किंतु ऐसा लगता है कि पीड़ित परिवार के अपने सदस्य को हमेशा के लिए खोने के दर्द को बांटने की इस प्राकृतिक व धार्मिक व्यवस्था को खत्म करके आजकल एक नई कृत्रिम व्यवस्था पैदा की जा रही है। पहले दस लाख रुपए के मुआवजा की घोषणा की गई, किस आधार पर, सरकार ही जाने? फिर मामले के तूल पकड़ने पर बवाल बढ़ते देख मुआवजा बढ़ाकर पचीस लाख रुपए कर दिया गया, साथ ही नौकरी और शहर में एक मकान देने की घोषणा भी की गई। सरकार इस तरह की घटनाओं को शांत करने में ‘‘मुआवजे‘‘ को हथियार के रूप में प्रयोग करती रही हैं। क्या जान की कीमत की पूर्ति किसी भी स्थिति में किसी भी श्रेणी के व्यक्ति के लिये धन व मुआवजे से की जा सकती है? यदि सरकार की कोई गलती नहीं, तो फिर मुआवजा किस बात का? और यदि प्रशासनिक स्तर पर कोई गलती हुई है, तो उस गलती के लिये उनके विरूद्ध समस्त आवश्यक दीवानी व अपराधिक कार्यवाही क्यों नहीं? इस तरह की घटनाओं को देखते हुए और कोरोना काल में भी हमारे धार्मिक शास्त्रों व रीति रिवाजों के अनुसार अंतिम संस्कार सहित तेरह दिन की धार्मिक कर्म काड़ करने की अनुमति न होने से मैं इस बात पर बल देना चाहता हूं, कि यद्यपि संविधान में अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार में ‘‘गरिमा के साथ रहना‘‘, जो मृत्यु के बाद भी ‘‘लागू‘‘ होता है, शामिल है। धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28 तक) में भी ‘‘अंतिम संस्कार‘‘ कराने का अधिकार है। परन्तू इस तरह की घटनाओं को देखते हुये संविधान में अनुच्छेद 21 से 28 में जहां भी आवश्यक हो एक ‘‘सम्य व गरिमापूर्ण अंतिम संस्कार‘‘ को व्यक्ति की गरिमा के अनुरूप ‘‘परिभाषित‘‘ कर ‘‘धार्मिक स्वतंत्रता’’ के अधिकार में यह संशोधन किया जाना अब आवश्यक हो गया है। इस घटना का सबसे दुखद, दुर्भाग्यपूर्ण और क्रोधित कर देने वाला पहलू यह है कि, ‘‘पीड़िता के परिवार‘‘ को न्याय दिलाने के लिए जो विभिन्न एजेंसीज और शासन जिम्मेदार है, वे सब प्रथम सूचना पत्र दर्ज होने से लेकर पीड़िता की मृत्यु, फिर अंतिम संस्कार और उसके बाद न्याय दिलाने की प्रक्रिया इन सब में समस्त तंत्रों की गई कार्रवाई को मात्र लापरवाही कहकर खारिज नहीं किया जा सकता है। प्रत्येक स्तर पर ये एजेंसीज या तो घटना को ही झुठला रही है या कहीं न कहीं उसे कमजोर कर रही है। देरी से प्रथम सूचना रिपोर्ट का दर्ज होना, पहले धारा 307 में प्रकरण पंजीयत होना लेकिन धारा 376 न लगाना, बाद में लगाना, फिर धारा 376 डी जोड़ना पीड़िता के इलाज में शीघ्रता न करना, मृतक शरीर के अंतिम दर्शन न करने देना, रात के 2ः00 बजे परिवार की अनुपस्थिति में अंतिम संस्कार कर देना, जिला मजिस्ट्रेट द्वारा परिवार को धमकाने का वीडियो वायरल होना तथा एसआईटी की जांच चल रही होने के नाम पर मीडिया को रिपोर्टिंग करने से रोका जाना। क्या देश में एसआईटी की जांच के दौरान इसी तरह से मीडिया व अन्य लोगो को मिलने से रोका गया है? हद तो तब हो गई जब एडीजीपी प्रशांत कुमार संवाददाता सम्मेलन लेकर एफएसएल की रिपोर्ट के आधार पर यह कहते हैं कि, पीड़िता के साथ बलात्कार नहीं हुआ है, बलात्कार के निशान नहीं मिले है। शायद घटना की इसी भयावता को देखते हुए इलाहबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ व राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने स्वतः संज्ञान लेते हुए अमानवीय व क्रूर व्यवहार को लेकर नोटिस जारी किये है। इस घटना ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा अभी तक अर्जित छवि पर धब्बा लगाया है। क्या अब एडीजीपी अपने दिए गए बयान को सत्यता प्रदान करते हुए दर्ज अपराध से धारा 376 को हटाएंगे? या फिर योगी आदित्यनाथ एडीजीपी प्रशांत कुमार को गलत बयानी तथा बलात्कार के कानून की जानकारी न होने के आधार पर कार्यमुक्त करके अपनी छवि बनाये रखगें? यह देखना होगा।लेख समाप्त करते करते दीदी सुश्री उमा श्री भारती जी के ट्वीट्स आए हैं, जो न केवल पूरी स्थिति का सही रूप में चित्रण करती है, बल्कि ‘‘सभ्य तरीके से नपे तुले शब्दों‘‘ द्वारा ‘‘जिम्मेदार तंत्र‘‘ की ‘‘गैर जिम्मेदारी‘‘ व गलत कार्रवाई को आम जनों के बीच सामने ले आती हैं। उनके इन ट्वीटों के लिए उन्हें हार्दिक साधुवाद। 


  ‘‘अगले जनम मोहे बिटियां न कीजो’’


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