“उच्चतम न्यायालय“ भी क्या अब “धमकियों व दबावं से न्याय“ देंगीं?

राजीव खण्डेलवाल :- 

माननीय उच्चतम न्यायालय ने किसान आंदोलन से उत्पन्न स्थिति के संबंध में दायर याचिकाओं तथा तीनों कृषि कानूनों की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओ पर सुनवाई करते समय याचिकाओ के गुण दोषों पर सुनवाई करने के बजाए तीनों कानूनो का विरोध करने वाले किसान आंदोलन व सरकार पर सख्त व कड़ा रुख अपनाते हुए सरकार को लगभग बाध्य करने वाली चेतावनी देते हुए कहा कि सरकार तीनों कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगाये, वरना स्वयं न्यायालय रोक लगाने का आदेश पारित कर देगी। और प्रकरण अगले दिन अंतरिम आदेश के लिए रख दिया गया। यही कहा जा सकता है कि "समरथ को नहिं दोष गुसाईं"।उच्चतम न्यायालय ने एक और नई बात कही कि वह कानून पर रोक की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि उसके अमल पर रोक की बात कह रहे हैं। व्यवहार में कानून के रोक पर और उसके अमल पर रोक में क्या अंतर है, यह समझ से परे है। दोनों ही स्थिति में न तो कानून की वैधता पर कोई आंच आती है, और न ही कानून के तहत सरकार कोई कार्यवाही आगे कर सकती है। सिर्फ भाषा की दृष्टि से कानून के अमल पर रोकना लगाने से एक अलंकृत रूप से फिलहाल सरकार को अपनी "हथेली पर सरसों जमाने का" नैतिक बल मिल जाता है कि संसद द्वारा पारित कानून को प्राथमिक दृष्टि से माननीय न्यायालय ने उसकी वैधानिकता पर कोई आंच नहीं आने दी है। जबकि उच्चतम न्यायालय स्पष्ट कर चुका है कि अभी तक उसने उक्त तीनों कानून की वैधानिकता पर सुनवाई प्रारंभ नहीं की है, जिसके लिए अगली तारीख निश्चित की गई है।जहां तक न्यायालय द्वारा सरकार को चेतावनी देकर आदेश पारित करने के अपने आशय को दर्शित करने का प्रश्न है, वह निश्चित रूप से गरिमामय नहीं है और कहीं न कहीं उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रत्यक्षतः सीधे आदेश पारित करने की अपनी जिम्मेदारी से बचने का प्रयास मात्र ही कहलाएगा। लगता है की सर्वोच्च न्यायालय "भ‌ई गति सांप छछूंदर केरी" की स्थिति में है।

जनता द्वारा चुनी गई जिस लोकप्रिय सरकार ने संसद में पारित कर कानून बनाया हो, उसी सरकार को बिना किसी प्रत्यक्ष रूप से पारित कानूनी आदेश के, “वैध कानून“ के अमल पर रोकने के लिए मजबूर किया जाए, क्या यह एक विचित्र वैधानिक स्थिति नहीं होगी? उच्चतम न्यायालय कानून की वैधता पर बिना सुने व निर्णय दिये बिना ही सरकार को रोक लगाने का दबाव पूर्ण सलाह देकर सरकार को कटघरे में खडा कर कानून के पालन में सरकार को ही मजबूर कर एक तरह से सरकार को स्वयं के बनाए कानून को अवैध मानने का परशेपशन दे दिया है, यह तो "अशर्फियां लुटें और कोयलों पर मुहर" वाली बात हो गयी जो कि सही स्थिति नहीं है। 

        उच्चतम न्यायालय को पूरा अधिकार है कि वह संसद द्वारा पारित कानून की संवैधानिकता की सुनवाई के समय उस पर रोक लगाने का आदेश पारित कर सकती है। लेकिन यहां पर न्यायालय ने यह अधिकार उपयोग करने के पूर्व, विकल्प तो नहीं कहा जाएगा लेकिन एक अवसर (बलपूर्वक) सरकार को दिया कि वह स्वयं उसके द्वारा बनाए गए कानून के अमल पर रोक लगा दे । यदि सरकार की नजर में यह उचित होता तो, वह आंदोलित किसान नेताओं की जो प्रारम्भ मेें यह मांग  रही है, को बातचीत के दौरान मानकर कानून पर रोक लगाकर बातचीत को आगे बढ़ाती, जिसे अभी तक सरकार ने नहीं माना है। लेकिन अब सरकार के पास कोई विकल्प नहीं है और चूंकि "हाथी के पांव में सबका पांव" अतः सरकार की “दोनों ही स्थिति में“ अर्थात कुछ करने या न करने की स्थिति में कानून के पालन पर रोक लगा दी जाएगी।

         लेख समाप्त करते करते अंततः उच्चतम न्यायालय का यह अंतरिम आदेश आ ही गया कि उक्त तीनों कानून के लागू करने पर “न्यायालय ने रोक“ (होल्ड) लगा दी है, इस कारण जिस विचित्र वैधानिक स्थिति के उत्पन्न होने की आशंका जो उच्चतम न्यायालय में कल की सुनवाई के दौरान उत्पन्न हुई जो उच्चतम न्यायालय के आदेश से फिलहाल दूर हो गई है । लेकिन "तेल देखना और तेल की धार देखना" अभी बाक़ी है।

परंतु इस "अंतरिम आदेश" से एक धारणा उत्पन्न होती सी दिखती है कि माननीय उच्चतम न्यायालय जबरन ही "पंच बनकर पंचाट" आदेश पारित कर चार सदस्यीय समिति का गठन कर दिया, जिसकी मांग किसी भी पक्ष ने नहीं की थी। और न ही यह "विषय वस्तु" न्यायालय के समक्ष थी। आदेश के पूर्व दोनों पक्षों से प्रस्तावित कमेटी के सदस्यों के नामों के सुझाव भी नहीं मांगे गए। जब सरकार व आंदोलित किसान नेताओं के बीच बातचीत चल रही है और टूटी नहीं है और बातचीत के दौरान किसान संगठनों ने सरकार की कमेटी बनाने की पेशकश को लगातार स्वीकार किया हो "तब मान न मान मैं तेरा मेहमान" की तर्ज पर उच्चतम न्यायालय द्वारा कमेटी का गठन अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण भी लगता है क्योंकि यह कार्य तो वास्तव में कार्यपालिका व विधायिका (शासन) का है। यद्यपि माननीय उच्चतम न्यायालय का इस आदेश पारित करने के पीछे उद्देश्य बात समस्या के प्रति समाधान कारक रवैया (एटीट्यूड) ही है।यह कितना सही है, यह कमेटी के गठन के आदेश पारित होने के बाद उस पर आयी प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट है। इसलिए भविष्य में इस तरह के आदेशों से उच्चतम न्यायालय को बचना चाहिए।

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