आखिर! माननीय ‘‘न्यायालय’’ ‘‘स्वयं की अवमानना‘‘ में क्यों लगा हुआ है?

उच्चतम न्यायालय के पारित आदेश का पालन न होने के कारण अवमानना के कई आदेश आपके सामने है। बिना मजिस्टेªट की अनुमति के अभियुक्त को हथकड़ी लगा कर न्यायालय में प्र्रस्तुत करने का आदेश, गिरफ्तारी करने के 24 घंटे के भीतर बरती जानी वाली सावधानियों से संबंधित आदेश, रात्रि 10:00 बजे के बाद से सुबह 6:00 बजे तक 125 डेसीमल से अधिक ध्वनि विस्तारक यंत्र लाउडस्पीकर न बजने का आदेश, पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिए पटाखों पर रोक के आदेश, दीपावली  दुर्गा पूजा एवं काली पूजा पर  आतिशबाजी पर  रोक लगाने की  कोलकाता उच्च न्यायालय का आदेश जैसे अनेकोंनेक आदेश है। लेख के लम्बा होने के कारण उनके सबका उल्लेख करना यहां संभव नहीं है। इनका उल्लघंन सिर्फ सामान्य नागरिक ही नहीं बल्कि अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष भी हो रहा है। लेकिन न तो कानून के उल्लंघन का रोकने के लिए और तदनुसार न ही अवमानना के लिए कोई कार्यवाही की जाती है।  

राजीव खण्डेलवाल:-                               

माननीय उच्चतम न्यायालय ने तीनों कृषि सुधार कानूनों और इसके विरोध में चल रहे किसान आंदोलन के संबंध में दायर याचिकाओं पर विगत दिवस सुनवाई करते हुए एक चार सदस्यीय समिति के गठन कर आदेश पारित किया था। न्यायालय ने समस्त पक्षों से उम्मीद की थी कि वह अपना अपना पक्ष इस समिति के सामने रखें। समिति को दो महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट सीधे उच्चतम न्यायालय को सौंपने के निर्देश भी दिये गये। इस अंतरिम आदेश व पिछले कुछ समय से पारित आदेशों को देखने से लगता है कि उच्चतम न्यायालय अपने द्वारा पारित आदेशों के लागू होने के प्रति क्या उतना ही गंभीर है, जितना आदेश पारित करने के प्रति है? हम सब ने यही पढ़ा है, जाना है और यही हमारी संवैधानिक व्यवस्था है कि माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित आदेश अंतिम होता है, जो समस्त नागरिकों पर लागू होता है और पूरे देश पर लागू होता है। (पूर्व में कुछ अवस्थाओं में जम्मू और कश्मीर को छोड़कर, जो व्यवस्था अब समाप्त कर दी गयी है)। इसीलिये उसे ‘‘लाॅ ऑफ लैंड‘‘ कहा जाता है।माननीय उच्चतम न्यायालय ने उक्त चार सदस्यीय समिति के गठन का आदेश पारित करते समय क्या वह सावधानी का पालन और सिद्धांत का ख्याल रखा कि उनके द्वारा पारित आदेश का पालन संभव हो पायेगा? कितना हो पायेगा? और नहीं हो पायेगा तो  क्या वह अवमानना की सीमा में आयेगा? और नहीं आयेगा तो ऐसे आदेश पारित कर ‘‘कागज काले करने‘‘ का औचित्य क्या?आदेश पारित करने के पूर्व, समिति का गठन करने के पहले उक्त चारों व्यक्तियों से क्या उनकी सहमति ली गयी थी? बल्कि यह कहा जाए तो ज्यादा सही होगा कि उनकी सहमति नहीं ली गई। और यदि सहमति ली गयी तो इसकी प्रक्रिया कब प्रारंभ हुई? और यदि सहमति लेने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गयी थी तो, इसका मतलब यह निकलता है कि माननीय न्यायालय एक ‘‘माइंड सेट‘‘ लेकर सुनवाई के लिये बैठे थे? वैसे एक सदस्य श्री भूपिंदर सिंह मान का समिति से इस्तीफा देना इस बात को प्रदर्शित करता है कि समिति के गठन करने के पूर्व सदस्यों से उनकी सहमति नहीं ली गयी। समिति के सदस्यों की पिछली भूमिकाओं के साथ उनके विचार वर्तमान का़नून के बाबत जो कुछ भी मीडिया के माध्यम से सामने आया है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान में उनके विचार तीनों कृषि सुधार क़ानूनों के संबंध में कहीं न कहीं पक्ष में हैं। इस प्रकार जिस हक़ की लड़ाई किसान लड़ रहे हैं, समस्या सुलझाने के लिए निष्पक्ष मत के बजाय एक निश्चित दिशा का मत रखने वाले सदस्यों का समिति में होना किसी भी रूप में न्याय देने की दिशा में उठाया गया कदम नहीं कहला सकता है।

न्याय का एक मान्य सिद्धांत है कि ‘‘न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिये, बल्कि होता हुआ दिखायी भी देना चाहिये‘‘। अर्थात न्याय में ‘‘परसेप्शन‘‘ (अनुभूति, धारणा) का भी उतना ही महत्व है, जितना निर्णय देने का या न्याय मिलने का। और न्याय की इस धारणा (परसेप्शन) का समिति गठित का आदेश पारित करने में न केवल पूरा अभाव है, बल्कि यह कहा जाये कि पूरा उसके विपरीत ही है तो, गलत नहीं होगा। भाजपा द्वारा इन सदस्यों के चयन को इस आधार पर सही ठहराने का प्रयास किया जा रहा है कि इनका पिछला आचरण व आवरण यूपीए सरकार या कांग्रेस के ज्यादा निकट था। ये प्रबुद्ध, बुद्धिजीवी और विशिष्ट क्षेत्रों में अपनी विशेषता बनाये हुए विशेषज्ञ व्यक्ति हैं, इसलिए उनकी आलोचना उचित नहीं है। समिति के सदस्यों की विशेषता, विशेषज्ञता योग्यता, बुद्धि, कौशल पर कोई प्रश्न-चिन्ह नहीं है। लेकिन वे उपरोक्त गुणों के साथ कृषि सुधार क़ानूनों के संबंध में जिन विचारों को लेकर वर्तमान में चल रहे हैं, निश्चित रूप से उनकी वह विचारधारा और मत वर्तमान में इस समस्या के एक पक्ष ‘‘किसानों के आम मतो की विरोधी‘‘ हैं। इसलिये उनसे निष्पक्ष न्याय की उम्मीद करना व्यवहारिक कदापि नहीं होगा। एक माननीय सदस्य के इस्तीफे से इस बात की लगभग पुष्टि भी होती है। माननीय उच्चतम न्यायालय से इतनी बड़ी ‘‘चूक‘‘ कैसे हुई, यह समझ से परे है। यदि यह चूक वास्तविकता के निकट है तो, निश्चित रूप से उच्चतम न्यायालय को स्वयं संज्ञान लेकर समिति का पुनर्गठन करना चाहिए। दोनों पक्षों से दो दो नाम लेकर एक नाम माननीय उच्चतम न्यायालय प्रस्तावित करे, सही स्थिति तो यही होगी। ‘‘सहज पके सो मीठा होय‘‘।

बात अब उच्चतम न्यायालय के इस आदेश के पालन और परिपालन न होने पर उसके परिणाम की चर्चा कर लें। समिति के गठन के बाद सरकार और किसानों के बीच नौवें दौर की बातचीत पूर्वानुसार बिना किसी निष्कर्ष के इस सहमति के साथ संपन्न संपन्न हो गयी कि अगले दसवें दौर की बातचीत 19 तारीख़ को होगी। आज तारीख को एक दिन बढ़ाकर 20 तारीख कर दी गई है। और न्यायालय द्वारा गठित समिति की आज प्रथम बैठक भी हुई। इसमे कोई भी किसान प्रतिनिधी व वे भी किसान संगठन जो सरकार को कृषि सुधार कानून के बाबत समर्थन दे चुके है, उपस्थित नहीं हुये। माननीय उच्चतम न्यायालय ने समिति गठित करते समय ‘‘सरकार‘‘ से ‘‘बातचीत‘‘ करने पर कोई ‘‘प्रतिबंध नहीं‘‘ लगाया है। लेकिन आदेश का आशय तो निश्चित रूप से यही है कि किसान अब सरकार के बदले ‘‘गठित समिति‘‘ से बात करें। एक साथ दो स्तरों पर बातचीत का कोई औचित्य नहीं है। (जैसा कि सरकार कृषकों को एक साथ दो बाजार सरकारी मंडी व निजी मंडी में माल बेचने की सुविधा के  लाभ का बखान करते थकती नहीं है)। उच्चतम न्यायालय को  इस सीमा तक आगे आना ही इसलिये पड़ा कि पहला प्लेटफार्म ‘‘सरकार‘‘ के साथ बातचीत का परिणाम निष्कर्ष हीन हो कर असफल होने से उच्चतम न्यायालय ने बातचीत के लिए उक्त दूसरे प्लेटफार्म की व्यवस्था की। 

क्या इस ‘‘समिति‘‘ की मांग किसी भी पक्ष ने की थी? उत्तर है- नहीं। लेकिन फिर भी माननीय उच्चतम न्यायालय का आदेश होने के कारण यह दोनों पक्षों पर बंधन कारी है, क्या इसमें किसी को शक ओ शुबहा है? अर्थात इस समिति के गठन का निर्णय आने के बाद सरकार को किसानों से सीधे बातचीत नहीं करनी चाहिये थी और किसानों को भी समिति से ही बातचीत करनी थी। लेकिन किसानों ने तो आदेश के पहले ही अपना ‘‘अंगद का पांव रखकर‘‘ यह स्पष्ट कर दिया था कि वह समिति के समक्ष जायेंगे ही नहीं। वहां तक तो ठीक था। लेकिन दोनों के बीच बातचीत होने का सीधा सा मतलब, अर्थ और निष्कर्ष यही निकलता है कि नौवें दौर की हुई बातचीत सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन है। यदि नहीं तो क्या है? क्या सब की ‘‘आंखों का पानी ढ़ल गया‘‘ है? 

क्या नौंवे दौर की बातचीत से माननीय उच्चतम न्यायालय की मानहानि नहीं हुई है? यह मानहानि के दायरे में नहीं आता है? ऐसा पहली बार देखने में आ रहा है, जब माननीय उच्चतम न्यायालय के आदेश का समस्त संबंधित पक्ष सहज व सहमति पूर्वक उल्लंघन कर रहे हैं। सामान्यतः तो "निर्णय" को एक पक्ष स्वीकार करता है तो दूसरा पक्ष उसे अस्वीकार करता है। अर्थात एक पक्षकार के पक्ष में तो दूसरे पक्षकार के विरोध में निर्णय होता है। सरकार ने तो उच्चतम न्यायालय के निर्णय का स्वागत भी किया था। तब फिर वह किसानों से किस आधार पर सीधे बातचीत कर रही है और वह माननीय उच्चतम न्यायालय को क्या संदेश देना चाहती है? क्या ‘‘सब कुछ सपाट हो गया इस देश में‘‘? आप ‘‘कुछ भी करते रहिए‘‘? राजकता और अराजकता में अंतर खत्म होता जा रहा है? इस स्थिति पर भी समस्त क्षेत्रों की तरफ से प्राथमिकता के आधार पर गहन मनन और विचार-विमर्श की आवश्यकता है।उच्चतम न्यायालय का बंधनकारी, सार्थक व वास्तविक प्रभाव तभी तक है, जब तक लोगों में यह विश्वास बना रहेगा कि उच्चतम न्यायालय का प्रत्येक आदेश-निर्देश संसद द्वारा बनाये गये कानून के समकक्ष है, जिसका पालन न करने पर अवमानना का दोषी पाया जा कर जेल जाना होगा। जबकि यह जरूरी नहीं है कि संसद द्वारा पारित का़नून का पालन न करने पर संसद की अवमानना का दोषी माना जाये।

उच्चतम न्यायालय को निर्णय पारित करते समय इस बात की पूरी सावधानी रखने की आवश्यकता होती है व सतर्कता बरतनी भी चाहिए कि उसके द्वारा पारित निर्णय, आदेश ऐसे हों जिनका पालन प्राकृतिक रूप से  समस्त संबंधित पक्षों के लिए संभव हो सके। क्योंकि माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णय दो तरह के होते हैं ‘‘जजमेंट इन रेम‘‘ व ‘‘जजमेंट इन परसोनम‘‘। इसका मतलब यही होता है कि जब दो पक्ष उच्चतम न्यायालय के सामने होते हैं ता,े वह निर्णय दोनों पक्षों पर लागू होता है जो ‘‘जजमेंट इन परसोनम‘‘ (व्यक्ति लक्षी निर्णय) कहलाता है, और जब मुद्दा सार्वजनिक होता है या कोई कानून या उसकी किन्हीं धाराओं की वैधता का मुद्दा होता है, तब वह ‘‘जजमेंट इन रेम‘‘ (लोकलाक्षी निर्णय) कहलाता है। अर्थात वह देश के समस्त नागरिकों पर लागू होता है। समिति के गठन का आदेश निर्णय की  उक्त दो श्रेणियों से अलग हो सकता है । भविष्य में यह बहस का मुद्दा भी हो सकता है, क्योंकि समिति के गठन के मुद्दे को लेकर दोनों पक्ष उच्चतम न्यायालय में नहीं गए थे।

उच्चतम न्यायालय के पारित आदेश का पालन न होने के कारण अवमानना के कई आदेश आपके सामने है। संबंधित न्यायालय की अनुमति के बिना अभियुक्त को हथकड़ी लगा कर न्यायालय में प्र्रस्तुत न करने का आदेश, गिरफ्तारी करने के 24 घंटे के भीतर बरती जानी वाली सावधानियों से संबंधित आदेश, रात्रि 10:00 बजे के बाद सुबह 6:00 बजे तक 125 डेसिबल से अधिक ध्वनि विस्तारक यंत्र लाउडस्पीकर डीजे न बजने का आदेश, पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिए पटाखों पर रोक के आदेश, दीपावली दुर्गा पूजा काली पूजा पर आतिशबाजी पर रोक लगाने का कोलकाता वाला देश जैसे अनेकानेक आदेश है। लेख के लम्बा होने के कारण उनके सबका उल्लेख करना यहां संभव नहीं है। इनका उल्लघंन सिर्फ सामान्य नागरिक ही नहीं बल्कि अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष भी हो रहा है। लेकिन न तो कानून के उल्लंघन का रोकने के लिए और न ही तदनुसार अवमानना के लिए कोई कार्यवाही की जाती है।  

अंततः उच्चतम न्यायालय को अपनी सर्वोच्चता के साथ निष्पक्षता, वास्तविक व तुरंत न्याय और "प्रतिबद्ध न्यायपालिका (कमिटेड़ ज्यूडीशरी पी.एन.भगवती के समय) "न्यायिक सक्रियता" से (न्यायिक गतिशीलता) हटकर आगे आकर सिर्फ संविधान द्वारा निर्धारित क्षेत्राधिकार में स्वयं को सीमित रखकर संविधान के दूसरे दोनों तंत्रों के क्षेत्राधिकार का सम्मान करने हेतु आत्मनियंत्रित होकर कार्य करना होगा। चूंकि उच्चतम न्यायालय सबको नियत्रित करता है। इसलिए उसे स्वयं को आत्मनियंत्रित करना होगा। तभी उसकी विश्वसनीयता व पारित कानून की अंतिमता, प्रभुता अक्षुण बनी रहेगी।

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