‘‘संस्कार की कमी’’ या ‘‘दकियानूसी सोच’’ या ’’एजेंडा’’ को मजबूती’’

वास्तव में मुददा परिधान का नही ‘‘ड्रेस कोड‘‘ का है। ड्रेस कोड में परिधान शामिल हैं, परन्तु परिधान में ड्रेस कोड शामिल नही है।आखिर ड्रेस कोड होता है क्या? मूल रूप से ड्रेस कोड  जीवन के अनुशासन को प्रदर्शित करता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र फिर चाहे स्कूल की बात कर ले, आर्मी, पुलिस, सिक्योरिटी गार्ड, न्यायालयों में न्यायाधीश व वकील, नेताओं की वेश भूषा, पूजा स्थल, पूजन कार्यक्रम शादी समारोह, विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह, कंपनी के एग्जीक्यूटिव , डॉक्टर्स-नर्सेस, ऑपरेशन रूम ऐसे न जाने अनेकों क्षेत्र, और क्षेत्रो में काम करने वाले व्यक्ति है, जहां कार्य की दक्षता (निपुणता), एक रूपता, पृथक पहचान, अनुशासन आदि उत्प्रेरित तत्वो के कारण ड्रेस कोड हमारे जीवन में उतरा हुआ है, जिसे हम जीते है।



क्या देश में ‘‘संस्कृति‘‘ को बचाने के लिए अपने विचारों को व्यक्त करना ‘‘मीडिया‘‘ में ‘‘ट्रोल‘‘ का विषय होगा?

राजीव खंडेलवाल:-

उत्तराखंड के नए नवेले मुख्यमंत्री  के वायुयान के अपने सफर के अनुभव को साझा करते हुये, बगल में बैठी एक महिला यात्री के पहनावे को हमारी ‘‘संस्कृति‘‘ के साथ जोड़ने पर ‘‘राजनीति हावी‘‘ होकर देश में ‘‘मानो आसमान सा टूट पड़ा‘‘। स्वयं को प्रगतिशील कहलायी जाना पसंद करने वाली महिलाओं द्वारा मुख्यमंत्री के कथन को महिलाओं की आन, बान, शान, मान, सम्मान और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आघात मानकर ‘‘हंगामा‘‘ खड़ा कर दिया। ‘‘अप्रियस्य च पथ्यश्स्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः‘‘। अर्थात अप्रिय किंतु हितकारी बात कहने और सुनने वाले दोनों ही ‘‘दुर्लभ‘‘ होते हैं। 

’’21वीं सदी में महिलाओं की पुरुषों के साथ बराबरी के अधिकार व समाज में बराबरी के दर्जे को लेकर पूरा मानव समाज बेशक एक मत हो। बावजूद इसके  ईश्वर ने स्त्रियों की शारीरिक संरचना , कंठ की सुरीली आवाज, कार्य की प्रकृति, प्रवृत्ति व क्षमता, सहनशीलता, सोच आदि अनेक मामलों में स्त्री-पुरुष में कुछ ‘‘अंतर‘‘ जरूर बनाया है। इसीलिए ’’बलात्कार’’ का अपराध सामान्यतः स्त्रियों के विरुद्ध होकर पुरूष ही अपराधी होते है। भारतीय दंड संहिता की धारा 376, 375, 354  A, B, C व D में यौन उत्पीडन के समस्त अपराधों में पुरूष को ही अपराधी माना गया हैं, महिला को नही। आखिर मुख्यमन्त्री तीरथ सिंह रावत ने ऐसा क्या कह दिया कि हंगामा खड़ा हो गया? या हंगामा खड़ा करना ही मुख्यमंत्री की सोउद्धेश्यपूर्ण  ‘‘राजनैतिक एजेंडा‘‘ का भाग है? क्योंकि कुछ वर्गो द्वारा की गई आलोचना व तत्पश्चात मुख्यमन्त्री के आये  दो और विवादास्पद बयानों (अधिक राशन पाने के लिए ज्यादा बच्चे पैदा करते लोग) से उक्त ‘‘परसेप्शन‘‘ को बल मिलता हैं। और यदि ऐसा है भी तो इसमें ‘‘गलत‘‘ क्या है ?

एक महिला यात्री जो ‘‘एनजीओ‘‘ चलाती है, फटी (रिप्पड) जींस (जो जींस की एक डिजाईन है) पहनी हुई थी। इस पर मुख्यमन्त्री ने यह बयान दिया कि इससे समाज में क्या संदेश जाएगा? उन्होंने सहयात्री महिला से कहा कि ’’समाज के बीच धुटने फटे दिखते है, बच्चे साथ में है, क्या संस्कार है ये’’? मुख्यमंत्री ने परिधान के पहनावे के व्यक्तिगत नागरिक अधिकार पर कोई ‘‘प्रश्नवाचक‘‘ चिन्ह नहीं लगाया है? जैसा कि मीडिया में प्रचारित कर उन्हें ‘‘ट्रोल‘‘ किया जा रहा है, बगैर यह सोचे कि ‘‘आसमान का थूका मुंह पर ही पड़ता है‘‘। भारतीय संस्कृति में ‘‘लज्जा’’ को स्त्रियों का आभूषण कहा गया है और ’’शील’’ को सभी का आभूषण माना गया है-‘‘शीलं परम् भूषणम्’’। 

सार्वजनिक स्थलों पर ‘‘अशालीन‘‘ वस्त्र पहन कर महिलायें स्वयं को भले ही ‘‘प्रगतिशील‘‘ मानें, लेकिन यथार्थ में उन्हें देखने वालों की नजरों में उनका सम्मान कम अवश्य होता है। हमारे देश के संस्कार तो कहते हैं कि ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवताः‘‘। इस बात को हर सुसंस्कृत, सम्य भारतीय नागरिक मानेगा कि कौन सा परिधान कब और किस समय पहनना उचित है, जिसे व्यापक रूप से समाज भी स्वीकार करता है। उदाहरणार्थ महिला तैराक, एथलिटिक की महिला खिलाडियॉ खेल के समय जो ‘‘ड्रेस कोड‘‘ पहनती है, उस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होती है और न ही होनी चाहिए। इससे दर्शको के मन में भी किसी तरह की ‘‘अन्य भावना’’ उत्पन्न नहीं होती है। परन्तु वे ही खिलाडी जब वही ड्रेस पहनकर बाजार में या अन्य सार्वजनिक स्थलों पर घूमेगीं तो, क्या वह उचित होगा? और क्या यह एक सभ्य समाज की संस्कृति है? व उसे सभ्य समाज स्वीकारेगा? ऐसी स्थिति में एक दर्शक के भाव बदलने पर क्या आप सिर्फ दर्शक को ही दोषी मानेंगे? यह आपको तय करना हैं।

स्पष्ट है कोई भी परिधान पहनना उचित है या नहीं, यह समय, परिस्थितियां, स्थान और अवसर (ऑकेजन व इवेंटस) पर निर्भर करता है। मंच पर किसी नाटक के प्रदर्शन के लिए आवश्यक, पहना गया परिधान या कपड़ों के प्रचार के लिए ‘‘रैम्प‘‘ पर ‘‘कैटवॉक‘‘ के समय पहना गया परिधान ऐसे अवसरों के लिए तो सही है। लेकिन वही परिधान अन्य किसी अवसर के लिए उचित नहीं माने जा सकते हैं। अखाड़े में कुश्ती लड़ने के लिए जाने वाले पहलवान सिर्फ ‘‘लंगोट कसकर अखाड़े’’ में उतरता है। कोई आपत्ति की बात नहीं होती है। लेकिन वही पहलवान उसी स्थिति में सार्वजनिक स्थलों पर घूमने लगे और यदि आप ‘‘परिवार सहित‘‘ वहां उपस्थित हैं तो, आपको क्या अजीब सा नहीं लगेगा? क्या भगवान की पूजा अर्चना करते समय व शादी के कार्यक्रम की पोशाक अथवा मृतक को ‘‘दाग‘‘ देने वाले व्यक्ति की पोशाक को परस्पर बदला जा सकता है ? ‘‘शव यात्रा‘‘ में ‘‘सूटेड बूटेड‘‘ पहनावे के साथ जाया जा सकता है? ‘‘नाइट गाउन‘‘ पहनकर दिन में बाजार में घूमा जा सकता है? ‘‘दक्षिणी भारत‘‘ में ‘‘लुंगी‘‘ वहां की वेशभूषा है, परंतु क्या हिंदी प्रदेशों में लुँगी (तहमत) पहन कर घूमना सभ्य होगा? एक ही वेषभूषा आखों को कभी शांति प्रदान करती हैं तो, संदर्भ बदल जाने पर खटकती भी हैं। भिक्षावृत्ति  से ‘‘सूट‘‘ खरीद कर, पहनकर भिक्षुक भूखा नहीं मर जाएगा क्या?

अतः यह स्पष्ट है कि कोई भी परिधान या पोशाक का पहनना कब उचित है और कब अनुचित है, कब संस्कारिक है और कब अशिष्ट (असभ्य) है, यह समय, स्थान और ‘‘स्थानीय संस्कृति‘‘ पर निर्भर करता है। यदि आप दूरस्थ आदिवासी क्षेत्रों में चले जाएं तो, वहां की महिलाएं एक साड़ी के द्वारा अपने पूरे शरीर को ढक लेती है। यह उनका प्राकृतिक ग्रामीण परिधान व परिवेश है। लेकिन यदि यही परिधान एक शहर की महिला शहर में पहनेगी तो, क्या उसको आप उचित ठहराएंगे? अमेरिका, यूरोप, की महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले परिधान भारत मेें (महानगरो को छोडकर) स्वीकार नही है। ‘‘अपनी जिंदगी अपनी स्टाईल‘‘ कहकर आप अपने परिधान को सर्वथा ‘‘सर्वत्र‘‘ उचित नहीं ठहरा सकती हैं।

परिधान पहनने का अधिकार व्यक्तिगत अधिकार होने के साथ-साथ पूर्णतः ‘‘निर्बाध‘‘ नहीं है। यह अधिकार ठीक उसी प्रकार से है जिस प्रकार आपको व्यक्तिगत स्वतंत्रता या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है। यह संविधान द्वारा खींची गई सीमाओं के भीतर ही निहित है जो एब्सोल्यूट (पूर्ण) नहीं है। इसी प्रकार परिधान पहनने का अधिकार भी समाज द्वारा मान्य की गई, रेखांकित की गई सीमाओं के अंदर ही मान्य है, जो ‘‘निरकुंश स्वच्छंदता‘‘ से ’’युक्त’’ नहीं है। अतः परिधान के अधिकार का उपयोग (दुरुपयोग नहीं) कर शालीन बनिए जिससे शालीनता टपके, न कि परिधान पहने का सिर्फ ‘‘ढोंग‘‘ दिखें।

परिधान पहने पर एक ओर प्रश्न सोशल मीडिया में उठाया गया है कि पुरूषों से उनके परिधान पर ‘‘प्रश्न‘‘ नहीं किया जाता है, क्यों? यदि सिर्फ ‘‘अंडरगारमेंट्स‘‘ पहिने महिला-पुरूष सार्वजनिक स्थानों पर जाये तो, ‘‘फब्तियां‘‘ किस पर कसी जायेगी? इसे आप गंदी मानसिकता कहकर जरूर अलग-थलग कर सकते है। लेकिन इससे ‘‘वास्तविकता‘‘ नहीं बदलेगी। मुख्यमन्त्री की परिधान वाली सोच को नारी की ‘‘स्वतंत्रता पर आंच’’ से जोड़ना कितना जायज व उचित हैं? वास्तव में मुददा परिधान का नही ‘‘ड्रेस कोड‘‘ का है। ड्रेस कोड में परिधान शामिल हैं, परन्तु परिधान में ड्रेस कोड शामिल नही है। मतलब समय, स्थान व अवसर की नजाकत व मांग को देखते हुये शरीर को परिधान से ढकना ही ड्रेस कोड हैं, जिसका अनुपालन करके ही भारतीय संस्कृति की पहचान व रक्षा संभव हैं। रिप्ड जीन्स भी एक ड्रेस कोड है, जो आधूनिक फैशन के चलन में है, इस पर कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन यह कब पहनना चाहिए या इस तरह के सार्वजनिक स्थानो पर नहीं पहनना चाहिए, मुख्यमन्त्री इस बात को शायद अच्छे तरीके से व्यक्त नहीं कर पाये। 

आखिर ड्रेस कोड होता है क्या? मूल रूप से ड्रेस कोड  जीवन के अनुशासन को प्रदर्शित करता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र फिर चाहे स्कूल की बात कर ले, आर्मी, पुलिस, सिक्योरिटी गार्ड, न्यायालयों में न्यायाधीश व वकील, नेताओं की वेश भूषा, पूजा स्थल, पूजन कार्यक्रम शादी समारोह, विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह, कंपनी के एग्जीक्यूटिव , डॉक्टर्स-नर्सेस, ऑपरेशन रूम ऐसे न जाने अनेकों क्षेत्र, और क्षेत्रो में काम करने वाले व्यक्ति है, जहां कार्य की दक्षता (निपुणता), एक रूपता, पृथक पहचान, अनुशासन आदि उत्प्रेरित तत्वो के कारण ड्रेस कोड हमारे जीवन में उतरा हुआ है, जिसे हम जीते है। स्वयं इलेक्ट्रानिक मीडिया के एंकर का भी ड्रेस कोड होता है। संघ के ड्रेस कोड ( कुछ समय पूर्व तक खाकी हाफ पेंट) पर रवीश कुमार ने ‘‘तंज‘‘ कसा है। क्या उससे अशिष्टता या अश्लीलता के भाव उत्पन्न होते थे? रवीश कुमार तंज करते समय जानबूझकर बताना भूल गए कि संघ की ड्रेस छोटी होकर ‘‘चड्डी‘‘ में नहीं बदली, बल्कि बड़ी होकर ‘‘पेंट‘‘ में बदली । जबकि  परिवर्तन के युग में आजकल परिधान ‘‘बड़े से छोटे‘‘ होकर सिकुड़ते  जा रहे हैं। जो कि चिंता का विषय हैं। ‘‘फटी जीन्स’’ क्या संस्कृति को घायल कर देगी? जैसे तीक्ष्ण व्यंगात्मक प्रश्न (रवीश कुमार एनडीटीवी द्वारा) करके कहीं विषय को ‘‘भटकाया‘‘ तो नहीं जा रहा है?

क्या आप नहीं जानते है कि देश में आज भी देश में कुछ क्लबों में निर्धारित ड्रेस कोड़ है, जिसे पहन कर ही वहाँ ‘‘प्रवेश’’ मिलता है। मुझे कोलकाता के एक क्लब का इस तरह का अनुभव है। क्या इसका मतलब आपकी जीने की स्वतंत्रता के अधिकार पर ‘‘चोट’’ हैं? ‘‘जीन्स’’ को लेकर जीन्स के प्रकार व उनका उत्पादन, वर्ष 1992 में इटली में जींस के पहनावे के कारण एक सजायाफ्ता बलात्कारी को न्यायालय ने ’’सहमति मानकर’’ छोड़ना पहनावा चरित्र, सदाचार (मोरालिटी) को तय नहीं करता, ऐसे पहनावे ‘‘यौन अपराध‘‘ के लिए कितने जिम्मेदार हैं? आदि अनेकोंनेक उदाहरणों से सोशल मीडिया भरा पडा हैं। दरअसल सोशल  मीडिया ने उन्माद, अवसाद, निंदा स्तुति और निजी भावनाओं की सार्वजनिक और अमर्यादित अभिव्यक्ति को एक नया और अजब स्वरूप दे दिया हैं।

अंत में ‘‘महिला विरोधी सोच’,’ ‘‘मानसिकता बदलिये’’ जैसे प्रतिक्रिया देने वाली  महिलाओं को  स्वयं की मानसिकता बदलने की आवश्यकता है । उनसे जरूर यह पूछा जाना चाहिये कि क्या वे अपने घर की लड़कियों को ‘‘अंग प्रदर्शन’’ करने वाले परिधान की अनुमति देगी? यदि उक्त प्रश्न का उत्तर हां में है, तो इसका मतलब है कि ‘‘कुएं में भांग पड़ी हुई है‘‘ और निश्चित रूप से भारतीय संस्कृति का पश्चिमीकरण हो रहा है। दरअसल मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने स्त्रियों के परिधानों की भद्रता के प्रति सहज रूप से अपने भाव व्यक्त किये थे, किंतु उसे जानबूझकर एक ‘‘गलत अर्थ‘‘ दे कर ‘‘तिल का ताड़‘‘ बना दिया गया है।

 

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