कोविड-19! निष्कर्ष ! अतार्किक, अविवेक पूर्ण एवं परस्पर विरोधाभासी! परंतु वास्तविकता के निकट!

 

राजीव खंडेलवाल 

प्रथम भाग/- एक वर्ष  से अधिक व्यतीत हो चुके कोरोना काल (कोविड-19) जिसे राष्ट्रीय "आपदा"(सरकार द्वारा) "आफत" (जनता द्वारा) एवं आपात काल (उच्चतम  न्यायालय द्वारा) कहा गया है, में 'हीरो", "विलेन" और भुक्तभोगी व  भुगतयमान  सब  यदि कोई एक  व्यक्ति है तो वह "जनता" ही है। यदि जनता "आत्महत्या" और "हत्या" (गैर इरादतन हत्या) करने की अपनी बेवकूफी भरी असावधानी के "कृत्य" को रोक कर  "समझदार" हो जाए तो "शासन और प्रशासन तंत्र" भी "स्वयमेव" ही समझदार हो जाएगा। और समस्या के "खुशहाल परिणाम" आ जाएंगे। बात जब आत्महत्या की निकल ही गई है, तब इसकी चर्चा कर ले कि कोविड-19 ने भारतीय दंड संहिता में संशोधन किए बिना ही "आत्महत्या" को कानूनी रूप से कैसे "वैध" बना दिया है।

            आज की स्थिति में दुनिया में  शायद ही ऐसा कोई प्राणी हो,  जिसे या उसके परिवार को यह ज्ञात न हो कि "मास्क" और "दो गज की मानव दूरी" को यदि दिनचर्या में पूरी शिद्दत के साथ अपना लिया जाए तो कोविड-19 की इस महामारी से प्रत्येक हाल में बचा जा सकता है। उक्त सावधानी खर्च करने के लिए कोई पैसा खर्च नहीं करना पड़ता है। सिर्फ मास्क के लिए मात्र आठ दस रुपए। वैसे संक्रमण की कड़ी टूट जाने तक यदि आप पूर्णत: घर में ही रहे, तब आपको आठ दस रुपए भी मास्क के लिए खर्च नहीं करने पड़ेंगे। यद्यपि विगत दिवस ही नीति आयोग के सदस्य (स्वास्थ्य)  डॉक्टर वी के पॉल ने यह सलाह जरूर दी है कि कोविड-19 की दूसरी लहर मे वायरस के डबल म्यूटेशन को देखते  हुए घर में भी मास्क पहनने की आवश्यकता पर जोर दिया है। हालांकि इस सलाह का परिणाम भी कुछ क्षेत्रों में मीडिया द्वारा दिखाई जा रही नेगेटिव न्यूज़ के द्वारा लोगों  को भयाकृत  करने के कारण हो रही मीडिया की आलोचना के सामान ही तो नहीं होगा?निश्चित रूप से इससे भी लोग भयांकृत अवश्य होंगे। क्योंकि अभी तक तो घर में बिना मास्क पहने रहने को बड़ा सुरक्षित हथियार माना जा रहा था।

                      उक्त चेतावनी के बावजूद  आप बिना मास्क और 2 गज की मानव दूरी बनाए बिना घर के बाहर निकल रहे हैं। आप का यह जाने अनजाने में असावधानी लिया हुआ कृत्य क्या कोविड-19 बीमारी को "आमंत्रित" नहीं कर रहा है? तदनुसार कोविड-19 से  संक्रमित होने से यदि आप की मृत्यु हो जाती है, तो यह "आत्महत्या" नहीं है तो क्या है? परंतु कोविड-19 के कारण हुई यह "आत्महत्या" "विशेषाधिकार" लिए हुए हैं। अर्थात् प्रथम भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के अंतर्गत आपके विरुद्ध आत्म हत्या का अपराध दर्ज नहीं हो सकेगा जो अन्यथा होता। दूसरा यदि आप का जीवन बीमा है तो, वह पूरी जीवन बीमा राशि मिलेगी, जबकि "आत्महत्या" करने पर जीवन बीमा की राशि नहीं मिलती है। इसके अतिरिक्त सरकार की स्वास्थ्य संबंधित विभिन्न आयुष्मान और बीमारियों की योजनाओं के तहत इलाज में हुए खर्चे की भी "क्षतिपूर्ति" की जाती है। इसके अतिरिक्त वह व्यक्ति जिसके संपर्क से आप संक्रमित हुए हैं, जो आपकी मृत्यु (आत्महत्या) के लिए जिम्मेदार है, वह भी कानून के चंगुल से साफ बच रहा है। मृत्यु के लिए प्रेरित करना (धारा 306) कितनी महत्वपूर्ण है, इसकी एक झलक  पूरे देश ने चर्चित सुशांत केस में देखी है ।

            अतः यह स्पष्ट है कोविड-19 संक्रमण काल का उपरोक्त प्रथम निष्कर्ष व परिणाम  क्या  प्राकृतिक अथवा तार्किक है ? बिल्कुल नहीं ! इस अतार्किक परिणाम को रोकने के लिए क्या कानून में आवश्यक संशोधन नहीं किए जाने चाहिए? इसी कोविड- 19 से  उत्पन्न दूसरा अतार्किक परिणाम का विश्लेषण भी कर ले।

           आप अच्छे से यह बात जानते हैं कि देश की ग्रामीण जनता शहरी जनता की तुलना में  अनपढ़ व ज्यादा कम लिखी-पढ़ी है। बावजूद इसके कोविड-19 का प्रथम दौर हो या दूसरा , प्रत्येक स्थिति में ग्रामीण जनता की तुलना में शहर का पढ़ा लिखा व्यक्ति ज्यादा संक्रमित हुआ है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की पहली एवं दूसरी "सीरो सर्वे रिपोर्टों" से उक्त तथ्य  की पुष्टि भी होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 65% जनसंख्या रहती है। इसके मायने क्या निकलते हैं? एक पढ़ा लिखा व्यक्ति ज्यादा समझदार होते हुए, अपने स्वास्थ्य के प्रति ज्यादा जागरूक होने के बावजूद स्वयं को जरा सी सावधानी बरतकर कोविड-19 से नहीं बचा पा रहा है । इसके विपरीत ग्रामीण व्यक्ति कॉविड 19 की "मार" से तुलनात्मक रूप से दूर है। यह कहा जा सकता है कि ग्रामीण परिवेश में प्राकृतिक कारणों से एवं ग्रामीण व्यक्ति के कार्य करने की प्रकृति व रहन-सहन  की प्रवृत्ति के कारण  उसकी व्यक्तिगत इम्यूनिटी (रोग प्रतिरोधक शक्ति) ज्यादा अच्छी होने से तुलनात्मक रूप से वह कोविड-19 के संक्रमण से बचा हुआ है। बात बहुत हद तक सही भी है। परंतु इसके लिए जिम्मेदार कौन है? पढ़ा लिखा व्यक्ति या अनाड़ी अनपढ़ व्यक्ति? जब आप अपने बुद्धि, ज्ञान, विवेक, कौशल, संसाधन का उपयोग अपने को "स्वस्थ" रखने में नहीं लगा सकते हैं तो इसमें दोष "अनपढ़" व्यक्ति का नहीं है? कोविड-19 से निकला यह निष्कर्ष भी क्या "अविवेक पूर्ण" नहीं है ? गौर कीजिए!

             एक और झुग्गी झोपड़ी से निकले अतार्किक निष्कर्ष की भी चर्चा कर ले। आप जानते हैं! झुग्गी झोपड़ी में रहने वाली जनता न तो दो गज की मानव दूरी की सावधानी के नियम का पालन कर सकती है और न ही होम क्वॉरेंटाइन  का। फिर भी झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले व्यक्तियों को तुलनात्मक रूप से संक्रमण कम हुआ। कारण? विश्लेषण की आवश्यकता है? मुंबई में एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी झोपड़ी का क्षेत्र "धारावी" है। जहां पर मात्र दो वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में लगभग पंद्रह लाख से ज्यादा व्यक्ति रहते हैं । यहां पर भी पहले दौर की तुलना में दूसरे दौर में भी संक्रमण कम हुआ है। बीएमसी (मुंबई महानगरपालिका) के एक सर्वे के अनुसार दूसरे दौर में झुग्गी झोपड़ी में संक्रमितो की संख्या मात्र 10 प्रतिशत रही और शेष संक्रमित गगनचुंबी इमारतों मैं पाए गए ।

               कोविड-19 की एक  विरोधाभास स्थिति  को देखिए। देश में जब मात्र लगभग 500 (497) कोविड-19 संक्रमित व्यक्ति पाए गए थे और मात्र 9 लोगों की मृत्यु हुई थी, तब 24 मार्च 2020 को पूरे देश में राष्ट्रीय लॉकडाउन घोषित किया जा कर चरणबद्ध रूप से बढ़ाया जा कर कुल 68 दिन तक  लॉकडाउन लगातार लागू रहा। 16 सितंबर 2020 को भारत में कोविड-19 की स्थिति सर्वोच्च (पीक) थी जब 1 लाख के आस-पास (97894) संक्रमितो की संख्या पाई गई थी। तत्पश्चात संख्या कम होनी प्रारंभ हुई थी, तब लॉकडाउन चरणबद्ध तरीके से खोला गया था । आज जब तीन लाख   बासठ हजार से अधिक संक्रमितो की संख्या व  लगभग औसतन 3000 से अधिक मौतें प्रतिदिन पाई जा रही है, तब भी राष्ट्रीय लॉकडाउन घोषित नहीं किया गया है । क्या ऐसा तो नहीं कि राष्ट्रीय लॉकडाउन घोषित करने के बावजूद उन 68 दिन में संक्रमितो की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। मतलब क्या राष्ट्रीय लॉकडाउन की नीति गलत थी ? असफल रही? यद्यपि राज्य अपने-अपने प्रदेशों की स्थिति को देखते हुए टोटल लॉकडाउन, वीकेंड लॉकडाउन, नाइट कर्फ्यू , कोरोना कर्फ्यू, जनता कर्फ्यू, माल, बाजार बंद  इत्यादि  कदम उठाए जा रहे  हैं। इस राष्ट्रीय लॉक डाउन और कोविड-19 के संबंध में केंद्रीय सरकार द्वारा बरती जा रही नीति पर भी राजनीतिक दलों द्वारा विरोधाभासी आलोचना की गई है। जब शुरू में केंद्रीय सरकार ने राष्ट्रीय लॉकडाउन लगाया था, तब कुछ राज्य सरकारों और विपक्षी दलों द्वारा यह कहा गया था कि केंद्र ने पूरे सूत्र अपने हाथ में केंद्रित कर रखे हैं।  कोविड-19 से निपटने के लिए राज्यों को छूट दी जानी चाहिए। आज जब राष्ट्रीय लॉकडाउन न लगा कर इसे राज्यों के विवेक पर छोड़ दिया गया है, तब विपक्षी दल यह मांग कर रहे हैं  की एक  केंद्रीकृत  एजेंसी ही इस महामारी से सामना करने के लिए ज्यादा सक्षम है, अतः उसे ही अधिकृत किया जावे । आपदा काल में विरोधाभासी राजनीति की यह निम्नतर चरम सीमा है।

              उपरोक्त तीनों निष्कर्ष एवं परिणाम लगभग अतार्किक होते हुए भी वास्तविकता के निकट है। इसलिए इन पर "और" "शोध" करने की आवश्यकता है।

               अंत में एक बात और! इस बीमारी को कोविड-19 कहा गया है। अभी तक जितनी भी बीमारियां छोटी से लेकर बड़ी एवं घातक तक से हम इंसानों का पाला पड़ चुका है, उनमें से किसी भी बीमारी में "वर्ष" का उल्लेख नहीं है। कोविड-19  वर्ष 2019 को प्रदर्शित करता है, मैं ही "वर्ष" का उल्लेख क्यों है, यह भी एक अनुसंधान का विषय है। यदि इसके "अस्तित्व के प्रारंभ वर्ष" के कारण से इसे कॉविड-19 कहा गया है (जो वास्तविकता है) तो, फिलहाल इसके समाप्त होने की  संभावना न होने के कारण इसे कोविड-19-20-21 या कोविड 19-21 नामकरण करना ज्यादा प्रासंगिक व उचित होगा। अन्यथा सिर्फ "कॉविड" नामकरण करना ही ज्यादा उचित होगा। वैसे आपको यह बता दूं किसी भी बीमारी का नामकरण विश्व स्वास्थ संगठन (डब्ल्यूएचओ) अपनी आईसीडी विभाग के द्वारा करता है। डब्ल्यूएचओ ने "नोवल कोरोना वायरस" के कारण ही इसे कॉविड नाम दिया है। "नोवल"  का प्रथम अक्षर "एन" को प्रथम अक्षर के रूप में उपयोग करने पर डब्ल्यूएचओ के मानक (मापदंड) के अनुसार उसे बहुत ही घातक बीमारी माना जाता है। इसलिए यहां पर "एन" शब्द का उपयोग इस बीमारी का नामांकरण करते समय नहीं किया गया है जिससे अनावश्यक भयाक्रांत की स्थिति पैदा न हो। यद्यपि यदि डॉक्टर चाहे  तो उसे संक्षिप्त में एनसीओवी -19 भी लिख सकते हैं ।

 लेख के बड़ा होने से शेष भाग अगले अंक में..............

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