राजीव खण्डेलवाल:-
कोरोना आपदा काल में डॉक्टरों सहित फ्रंट लाईन वर्करों की बड़ी संख्या में ज़रूरत है। इसलिये मेरी भी इच्छा ‘‘डॉक्टर‘‘ बनने की हुई, ताकि इस आपदा काल में ‘‘कराहती मानवता’’ की ‘‘सेवा‘‘ में अपना कुछ योगदान कर सकूं। दुर्भाग्य से मेरे पास एमबीबीएस, बीएएमएस या अन्य कोई चिकित्सकीय (डॉक्टर) डिग्री नहीं है। परंतु भाग्य ने मुझे इस कोरोना काल में ‘‘डॉक्टर‘‘ बनने का एक मौका अवश्य दे दिया है। यह अवसर जुमलेबाज़ी के कारण उत्पन्न हुआ है।
वैसे तो इस देश में ‘‘जुमलेबाज़ी’’ के द्वारा जनता की ‘‘सेवा‘‘ करने की या यूं कहें कि "आधी रोटी में दाल झेलने की" परंपरा काफी समय से चलती आ रही है। जुमलेबाज़ी के माध्यम से देश के राजनेताओं द्वारा जनता को उनके सुनहरें जीवन को हवाई सपने दिखा कर ख़ुद सत्ता हासिल की जाती रही है और सत्तासीन व सत्ताच्युत किया जाता रहा है। परंतु कोरोना आपदा काल में देश में ख़ासकर मध्यप्रदेश में हमारे लोकप्रिय मुख्यमंत्री मामा शिवराज सिंह चौहान ने नए-नए जुमलों को गढ़ने में शायद महारत ही हासिल कर ली है। इसके लिए निश्चित रूप से वे बधाई के पात्र हैं। इन जुमलों, जिनकी चर्चा आगे करेंगे, के माध्यम से ‘‘मामा‘‘ ने‘‘ ‘‘जुमलेबाज़ी‘‘ के विषय पर ‘‘शोधप्रबंध‘‘ (थीसिस) लिखकर पीएचडी की डिग्री प्राप्त कर ‘‘डॉक्टर‘‘ बनने का एक सुअवसर उत्पन्न किया है। इसके लिए मैं उनको हृदय की गहराइयों से बधाई देना चाहता हूं। क्योंकि राजनीति में तो वे मुझे दो-दो बार ‘‘वचन‘‘ देने के बावजूद ‘‘प्राण जाई पर वचन न जाई’’ की पौराणिक उक्ति का पालन न कर पाने से ‘‘अवसर‘‘ देने में विफल रहे है। यद्यपि वे मेरे मित्र रहे हैं और मेरे बेटे की सगाई में इंदौर आशीर्वाद देने अपने कई मंत्रिमंडलीय साथियों के साथ पहुंचे थे, जिसके लिए मैं उनका आभारी भी हूं। आइए अब ‘‘जुमलेबाज़ी‘‘ की चर्चा कर ले।
विगत दिवस राष्ट्रीय चैनलों पर मध्य प्रदेश की भोपाल के विभिन्न श्मशान घाटो में शवों के जलाने के दृश्यों व शवों की संख्या की चर्चा होती रही। भोपाल के विभिन्न शमशान घाटो (13 तारीख़ को) में कुल 84 शव जलाए गए, जिनमें से 80 प्रतिशत से अधिक शव अस्पताल से सीधे श्मशान घाट लाए जा कर कोविड-19 प्रोटोकॉल के अधीन सरकारी महकमों के कारिंदो द्वारा जलाए गए। जबकि कोविड-19 से हुई मृत्यु का सरकारी आंकड़ा मात्र 4 का ही बतलाया गया। मुख्यमंत्री से मीडिया द्वारा आंकड़ों के इस भारी अंतर के बाबत पूछे जाने पर शिवराज सिंह ने अपनी "टट्टे की ओट लेकर शिकार खेलने की आदत" के मुताबिक़ एक नया जुमला जड़ दिया कि शेष शव संदिग्ध कोविड-19 की ‘‘आशंका‘‘ के चलते उन सबका भी अंतिम संस्कार कोविड-19 प्रोटोकॉल के अधीन ही किया गया है।
अभी तक तो हमने यही देखा था कि, शव या तो कोविड-19 से संक्रमित या संक्रमण रहित होता है। सीटी पीसीआर टेस्ट से कोविड-19 का पॉजिटिव अथवा नेगेटिव निर्धारण हो जाता है। इन दो सीमा रेखा के आधार पर ही अस्पताल में भर्ती होने से लेकर जांच, निदान, इलाज़ व मृत्यु तक और अंततः ‘‘अंतिम क्रिया‘‘ तक की प्राविधिक प्रथक प्रथक प्रक्रिया अपनाई जाती है। डॉक्टर भी मृत्यु का कारण स्पष्ट रूप से उल्लेखित करता है। अत संदिग्धता की आशंका की कोई गुंजाइश का होना संभव नहीं है। जिसको आधार बनाकर शिवराज स्पष्टीकरण दे रहे थे। कोविड-19 के शव को तो परिवार को भी नहीं सौंपा जाता है और न ही उन्हें हाथ लगाने दिया जाता है। परिजनों के बहते हुए आंसुओं की बंूदें मृतक शरीर पर गिरे बिना ही मृतक, जो कि एक सामाजिक प्राणी होता है, का ‘‘समाज‘‘ के द्वारा अंतिम दर्शन किए बिना ही जल्द से जल्द मृतात्मा को ईश्वर के पास पहुंचाने के लिए सरकार त्वरित गति से अपना ‘‘दायित्व‘‘ निभा रही है।
14 साल से अधिक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहने के बावजूद देश में एकमात्र ‘‘मामा- मुख्यमंत्री‘’ शिवराज सिंह ही बने हुए हैं। इसका कारण शायद यह हो सकता है कि शिवराज सिंह जो भी जुमले गढ़ते हैं, उस संबंध में उनका यह प्रयास होता है कि, उस पर उनका ‘‘एकाधिकार‘‘ रहे। जैसे ऊपर उल्लिखित जुमला ‘‘संदिग्ध कोविड-19 शव‘‘। परंतु एक प्रश्न अवश्य पैदा होता है कि ‘‘मामा-मुख्यमंत्री‘‘ के रहते हुए तो समस्त भांजे- भांजियां सुरक्षित और सुखी हो गयी, परन्तु भतीजी-भतीजो का क्या होगा? क्योंकि अभी तक मध्य प्रदेश में ही नहीं वरन् देश में कोई भी ‘‘चाचा-मुख्यमंत्री‘‘ नहीं हुआ है? इसका एक कारण तो शायद यह हो सकता है कि समस्त भतीजी-भतीजे स्वस्थ हैं, और सुखी है, जिन्हें किसी चाचा मुख्यमंत्री की छत्र-छाया की आवश्यकता नहीं है? अथवा कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘‘चाचा मुख्यमंत्री‘‘ बनकर कोई भी भी मुख्यमंत्री अपना मुख्यमंत्री पद खोने की जोखि़म नहीं लेना चाहेगा? क्योंकि इस देश में भले ही चाचा मुख्यमंत्री न हुए हो, परंतु प्रधानमंत्री ‘‘चाचा नेहरू‘‘ जरूर हुए हैं। चंूकि चाचा शब्द कांग्रेस के प्रधानमंत्री के साथ प्रसिद्धि के साथ जुड़ा हुआ है, इसलिए वर्तमान भाजपाई मुख्यमंत्री चाचा मुख्यमंत्री बनना क़तई पसंद नहीं करेंगे? यद्यपि जुमलेबाज़ी से हटकर वास्तविकता में नौकरशाह, ‘‘साध्वी‘‘, ‘‘दीदी‘‘, ‘‘पत्नी‘‘ (राबड़ी देवी) मुख्यमंत्री इस देश में रही है।
आइए! कुछ और जुमलेबाजी के शब्दों को निहार लें। शिवराज सिंह जी ने अभी कुछ दिन पूर्व ही जन-जागरूकता अभियान ‘‘मेरी सुरक्षा मेरा मास्क’’ चलाया था। 7 अप्रैल को भोपाल में गांधी प्रतिमा के पास 24 घंटे के लिये ‘‘एक दिन स्वास्थ्य के नाम’’ पर स्वास्थ्य आग्रह नाम देकर सत्यागृह पर बैठने की घोषणा की। यह भी एक नयी तरह की जुमलेबाज़ी लिये हुआ सत्याग्रह था, जिसमें बाक़ायदा अधिकांश गतिविधियाँ चालू रहने की अधिकृत घोषणा की गई थी। पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने इसे नाटक-नौटंकी तक करार कर देते हुये कहा कि यदि उन्हे नौटंकी करना है तो, वालीवुड़ चले जाना चाहिए। इसके एक दिन पूर्व ही मुख्यमंत्री ने संत हिरदाराम नगर (बैरागढ़) में कोरोना जागरूकता रैली को संबोधित किया, जिसमें जागरूकता के नाम पर सोशल डिस्टेंस को तत्समय ‘‘मुक्ति‘ दे दी गई। ‘‘दिया तले अंधेरा‘‘।
‘‘चेहरे को मास्क और पैरों को घर में करें लॉक यानि घर पर ही रहें’’। शहरी क्षेत्रों मे एक हफ्ते तक दो बार 11 बजे व सायं 07 बजे दो मिनट के लिये सायरन बजाकर मास्क पहनने व शारीरिक दूरी का ‘‘पालन करने का संकल्प‘‘ लिया गया। परन्तु शिवराज सिंह चौहान द्वारा 11 बजे संकल्प लेते समय उनसे 2 गज की दूरी पर खड़े दो व्यक्तियों की सटकर सकल्प लेने की फोटो वायरल हुई। इसी को कहते हैं, "बात लाख की और करनी खाक की'। ‘‘सायरन बजाने’’ की यह भी एक नई जुमलेबाज़ी। कोरोना कर्फ्यू यद्यपि यह ‘‘नाम‘‘ (जुमला) प्रधानमंत्री ने दिया, परंतु शिवराज सिंह ने इसे सबसे पहले (जो उनकी आदत में शुमार है ‘‘सबसे पहले’’-‘‘सबसे आगे’’ के कई उदाहरण उन्होंने स्थापित किये हैं जो एक अलग विषय है।) लपक कर पूरी शिद्धत से लागू कर दिया। दंड प्रक्रिया संहिता या भारतीय दंड संहिता में आवश्यक संशोधन कर कोरोना कर्फ्यू जोड़े बिना, कोरोना कर्फ्यू का उल्लंघन होने पर आप क़ानूनी कार्रवाई कैसे कर पाएंगे? अर्थात यह भी सिर्फ जुमलेबाज़ी?
शिवराज जी ने तो ‘‘लॉकडाउन‘‘ की परिभाषा ही बदल दी। मुख्यमंत्री ने यह घोषणा करके कि मध्यप्रदेश में कहीं भी लॉकडाउन नहीं है, यह कोरोना कर्फ्यू है। क्योंकि लॉकडाउन समस्या का समाधान नहीं है तब कोरोना कर्फ्यू कैसे प्रभावी रूप से ‘‘समाधान कारक‘‘ हो सकता है? यह स्पष्ट नहीं है और न ही अभी तक का ऐसा कोई सुखद अनुभव है। शाब्दिक रूप से लॉकडाउन घोषित न कर लगभग वैसे ही प्रतिबंधों को लगाना मात्र शब्दों का हेर फेर ही तो है। इससे व्यवहार में अर्थ या भावार्थ बदलता। यद्यपि एक समाचार के अनुसार मुख्यमंत्री की उक्त घोषणा के दिन ही प्रदेश के तीन जिलों में पूरी तरह से लॉकडाउन लगा हुआ था।
पिछले आम चुनाव में बहुमत न मिलने के कारण सरकार न बना सकने पर मुख्यमंत्री निवास खाली करने के पूर्व लोगों को संबोधित करते हुए शिवराज सिंह का यह जुमला भी काफी चर्चित रहा कि ‘‘टाइगर अभी जिंदा है‘‘, इसी फिल्मी जुमले को उन्होंने कमलनाथ के कार्यकाल एक साल पूरा होने पर पुनः दोहराया था। ‘‘कोरोना पर राजनीति नहीं होनी चाहिये‘‘। ’’कोरोना में जनता का मनोबल तोड़ने वाली बातें न हो’’ ‘‘सामान्य मरीज़ों का घर पर इलाज़ सुनिश्चित कर रहे है’’ आदि कथन शिवराज सिंह ने विभिन्न पत्रकारों से चर्चा के दौरान कहे हैं। ये सब भी जुमलेबाज़ी नहीं तो क्या है? क्या वे स्वयं इसका पालन करते रहे है? क्या इनका वास्तविकता से दूर-दूर तक कोई संबंध है? ‘‘कुंभ खुले में हैं’’, ‘‘मां गंगा की कृपा से नहीं फैलेगा कोरोना’’, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत। मंत्रीगण व राजनेताओं के संक्रमण होने पर सब एक सा ही ट्वीट करते है, जो भी व्यक्ति में संपर्क में आया हो वह अपनी जांच करा ले। मतलब इन नेताओं ने सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं किया? फिर तो क्या जुमलेबाज़ी दूसरों के लिए? इस तरह के अनेक जुमले अभी भी मौजू़द है। यदि ‘‘जुमलेबाज़ी’’ विषय पर जब ‘‘पीएचडी‘‘ की जाएगी तो, इस विषय की गहनता पर गहराई से विचार मनन करने पर, वह सब जुमले मिल जाएंगे, जिनको एक धागे में एक साथ पिरोकर वह सफलता पूर्वक थिसिस लिखकर पीएचडी लेकर ‘डॉक्टर‘‘ कहला सकता है।
आक्सीजन की उपलब्धता की कमी व जरूरत अनुसार आक्सीजन के उपभोग के ‘‘ऑडिट‘‘ की घोषणा कर नये शब्द का नामकरण कर उत्पन्न परिस्थिति पर नियंत्रण करने का शिवराज सिंह का प्रयास यद्यपि प्रशंसनीय है, लेकिन तभी तक जब वह जुमलेबाज़ी का शिकार होने से बच जाये?
परन्तु जुमलेबाज़ी के दौर में यह पहली बार हुआ है कि जब ‘‘शव‘‘ को भी जुमलेबाज़ी से जकड़ कर उसे अपनी प्राकृतिक ‘‘गति‘‘ प्राप्त करने से भी वंचित किया जा रहा है। जय हो जुमलेबाज़ी व जुमलेबाज़ लोग।
जुमलेबाज़ी का एक रूप चुटीली वाक्पटुता होती है, जिससे जनता को आकर्षित तो किया जा सकता है। परंतु जुमलेबाज़ी का दूसरा प्रायः प्रचलित रूप भ्रामक संबोधन है। इसे नाटक-नौटंकी या बरगलाना भी कहा जाता है। इसे कदापि जायज नहीं ठहराया जा सकता है। प्रधानमंत्री के चुनावी सभा में दिया गया भाषण व विदेशों से कालाधन वापस लाकर देश के प्रत्येक नागरिक को 15-15 लाख रुपए देने के कथन को अमित शाह ने नौ महीने के भीतर ही प्रधानमंत्री के कथन को ‘‘जुमला’ करार दे दिया था। विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के शीर्षस्थ स्तर पर यह स्थिति है?
बेचना पड़ जाए, जाने किस जगह।
जेब में रखिए, सदा ईमान को।
इससे स्पष्ट है राजनैतिक दल ‘‘जुमलो‘‘ से ही देश को चला रहे है। इसलिये आज देश गरीबी हटाओं, महगाई, भ्रष्टाचार, कालेधन, विकास, जातिवाद, लव जिहाद, अर्बन नक्सलाइट, साम्प्रदायिकता, आदि पर ही अटका है। इससे बाहर निकलने की नितांत आवश्यकता है। यह तभी संभव है जब राजनीतिक नेतृत्व जुमलेबाज़ी से बाहर निकले!