देश की "दशा" और "दिशा" शिक्षण व्यवस्था पर हैं निर्भर-आर. सी. मिश्रा

 केवल 5 अगस्त को शिक्षक दिवस मनाने और शिक्षकों को माला पहनाकर सम्मानित करने से शिक्षकों की स्थिति नहीं सुधरेगी, सरकार को देश के सर्वांगीण विकास हेतु शिक्षकों के हितार्थ ठोस कदम उठाए जाने की जरूरत 

आज वर्तमान समय में देश की सभी क्षेत्रों में विकास को लेकर भारत सरकार की गंभीरता और प्रयास सराहनीय हैं लेकिन कहीं न कहीं पीड़ा होती है कि हमारे देश के देशवासियों, शासन-प्रशासन और सरकारों की सोंच किस दिशा में जाकर विकास के स्वप्न संजो रखे हैं? देश के युवाओं को देखते हुए देश का भविष्य अंधकारमय प्रतीत होता है और इसका सबसे बड़ा कारण है, देश के उन प्रबुद्ध वर्गों के सुप्तावस्था में पड़ी सोंच और उनके द्वारा हाँथ पर हाँथ धरे बैठे रहना। यदि वास्तव में हमारा उद्देश्य है कि देश का सभी क्षेत्रों में सर्वांगीण विकास हो तो सर्वप्रथम हमें अपनी शिक्षण व्यवस्था और शिक्षकों की दशा सुधारने की ओर कार्य किया जाना चाहिए। यदि उच्चासनों पर बैठे जिम्मेदार नेताओं, मंत्रियों को देश के विकास की यह नींव समझ में नहीं आती तो ठीक है, लेकिन दुःख इस बात से होता है कि 12 से 18 घंटे की कठिन परिश्रम कर पढ़ाई करने के बाद ए ग्रेड के ऑफिसर, पी एच डी की डिग्री धारण किए हुए बहुत से ज्ञान के सागर इन नेताओं की "हाँ में हाँ" मिलाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पाते। बुद्धिजीवियों का एक बहुत बड़ा समूह राजनीति की आगोश में देश का विकास ही भूल बैठा और आज चंद लोगों के इशारों पर देश चलाया जा रहा है। देश में, प्रदेश में, संभाग में और जिलों में एक सक्षम अधिकारी नेताओं की चमचागीरी करने पर मजबूर हैं, आखिर क्यों? हमें किसी को भ्रष्ट कहने का अधिकार नहीं है लेकिन एक अधिकारी किन कारणों से इन नेताओं और पूंजीपतियों के इशारों पर नाचता है, यह जानने का अधिकार है? आज शिक्षा विभाग की ओर एक नज़र डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि हमारे देश में सभी अभिभावक अपने बच्चों को अंग्रेजी व पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध में एक खोखले सिस्टम का अनुसरण करते हुए एक संस्कार विहीन व संस्कृति विहीन शिक्षा दिलाने पर आमादा हैं और उन्हें बचपन से ही नौकरी के सपने दिखाकर शिक्षा दिलाई जाती है, न कि ज्ञान प्राप्त कर स्वयं के मानसिक विकास के लिए। 

 शासकीय विद्यालयों व महाविद्यालयों में प्रतिवर्ष भवन की मरम्मत, विद्यार्थियों की शिक्षण सामग्री, खेलने की सामग्रियों व अन्य कई सुविधाओं के लिए पर्याप्त मात्रा में सरकार द्वारा राशि उपलब्ध कराई जाती है और इतने बड़े पैमाने पर शासकीय राशि उपलब्ध कराए जाने के बावजूद आज शासकीय विद्यालयों   की ओर किसी अभिभावक का रुझान नहीं है कि अपने बच्चों का दाखिला शासकीय विद्यालय में कराएं, सभी नगर की बड़ी इंग्लिश मीडियम स्कूल की तलाश करने में व्यस्त हैं। आज हमारे विद्यालयों में भारतीय संस्कृति, हमारे संस्कार और गुरु-शिष्य परंपरा सब विलुप्त होती जा रही है और हम इसे साक्षरता मिशन कह रहे हैं।

            पूरे देश में शिक्षकों की दशा दयनीय हो चली है और जब हमारे देश व भविष्य के निर्माता कहे जाने वाले  शिक्षक वर्ग ही अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं तो देश का विकास कैसे संभव है? आज निजी विद्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षकों को 1500/-- रुपए से 10000/-- के आसपास के मानदेय पर अपने पूरे दिन का समय देना पड़ता है और इस भीषण महामारी के समय जब निजी स्कूलों में छात्रों का आना जाना बंद हुआ और शुल्क वसूली कम हुई तो कई शिक्षक या तो विद्यालय से ही बाहर हो गए या अभी भी संघर्षमय जीवन व्यतीत करने को मजबूर हैं। शिक्षण संस्थानों के संचालकों के लिए कुछ ऐसी नियमावली क्यों नहीं कि यदि वो शिक्षकों को कम से कम 25000 वेतन नहीं दे सकते हैं तो विद्यालय ही संचालित न करें। इन परिस्थितियों में हो सकता है कि विद्यालय कम हो जाएंगे, लेकिन यदि शिक्षक संतुष्ट होंगे तो वो अपना शत प्रतिशत बच्चों के लिए देंगे। आज शासकीय विद्यालयों में रिक्त पड़े स्थान भरने की ओर सरकार का ध्यान नहीं जा रहा है और पूर्व में आयोजित की गई परीक्षाओं के परिणाम लिए कई अतिथि विद्वान, युवा बेरोजगार पदस्थापना के इंतजार में अपनी निर्धारित आयु सीमा पार कर गए लेकिन सरकारें अब तक सब कुछ दरकिनार कर केवल चुनाव और कुर्सी की व्यवस्था में लीन हैं और अपने भाषणों में, उद्बोधनों में, रैलियों में, सभाओं में, गली-मोहल्लों में, देश के विकास की बात करते फिरते हैं।

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