राजीव खंडेलवाल:-
पश्चिमी बंगाल में परिणाम घोषित हुए अभी 72 घंटे भी पूरे नहीं हुए हैं , जहां मतों की गिनती प्रारंभ होने से ही "हिंसा का तांडव" लगातार चल रहा है। 10 व्यक्ति अभी तक इस हिंसा के शिकार होकर "अकाल मृत्यु के काल" को चले गए। इसमें छह भाजपा व तीन तृणमूल कांग्रेस समर्थक तथा एक अन्य बताया जा रहा है। भाजपा व कांग्रेस परस्पर एक दूसरे के विरुद्ध हिंसा भड़काने और कार्यकर्ताओं की हत्या करने का आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हैं। हिंसा में मरने वालों की "पहचान" भाजपा व तृणमूल समर्थकों के रूप में होना किस "गंभीर स्थिति" की ओर "संकेत" करता है? देश के लोकतंत्र के राजनैतिक इतिहास में आज तक प्रदेशों के हुए विधानसभा चुनावों के बाद शायद ही ऐसी हिंसा कभी भड़की हो, जैसे अभी बंगाल में हो रही है। यह समझा जा सकता है, चुनावी में अप्रत्याशित भारी जीत से कुछ अतिवादी कार्यकर्ता, अतिरेक उत्साह दिखा सकते हैं, जिस प्रकार बजरंगी भाई, हिंदू सेना के लोग भी कभी-कभी अतिरेक में अतिरिक्त उत्साह दिखा देते हैं। लेकिन यह "अतिरेक का उत्साह" है या "बदलापुर" ? हिंसा का ऐसा तत्काल उत्पन्न "मंजर" दोनों ही स्थिति में कभी भी नहीं देखा गया, जो अभी चल रहा है। इसलिए इसे अतिरेक उत्साह की प्रतिक्रिया मानना भूल हो सकती है? कहीं यह सुनियोजित हिंसा का परिणाम तो नहीं है? यह तो एफआईआर दर्ज होने के बाद "जांच" से ही पता चल सकेगा। मनोनीत मुख्यमंत्री और कुछ समय बाद शपथ ग्रहण करने के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का प्रथम संवैधानिक कर्तव्य क्या होना चाहिए ? क्या ममता अभी तक अपने संवैधानिक कर्तव्य को पूरी मुस्तैदी के साथ निभाती हुई दिख रही है? एक बड़ा प्रश्न मीडिया में उभर कर सामने आ रहा है? निश्चित रूप से कल शाम को इस त्वरित हिंसा से उत्पन्न स्थिति पर विचार करने के लिए उन्होंने एक उच्च स्तरीय बैठक बुलाई । इसके परिणाम अभी आने शेष है। अभी तक इन आगजनी, लूटमार व हिंसा के घटित मामलों में कितनी एफआईआर कहां-कहां, किन किन अपराधों व किन किन व्यक्तियों के विरुद्ध किन किन धाराओं में दर्ज हुई है, उसे तुरंत सरकारी वेबसाइट पर सरकार को डालना चाहिए ताकि भुक्तभोगी सहित आम जनता को यह महसूस हो सके कि सरकार की गाड़ी का "न्यूट्रल गियर" बदलकर "कार्रवाई गियर" में आ गई है। ताकि जिस जनता ने ममता पर पहले से ज्यादा विश्वास व्यक्त किया है, उसमें 48-72 घंटों में ही "दरारे" न पड़े। वैसे तो सरकार को हमेशा कार्यवाही "मोड" में ही होना चाहिए, ताकि इस "डर" से हिंसक घटनाएं घटे ही ना।
लोकतंत्र में वोटों के माध्यम से जनता का विश्वास प्राप्त करने तक ही उद्देश्य सीमित नहीं रहता है। बल्कि उससे ज्यादा उस "विश्वास' जिस पर जनता ने विश्वास व्यक्त किया है, को पूर्ण अवधि अर्थात 5 साल तक के लिए बनाए रखना भी राजनीतिक पार्टी का दायित्व होता है। क्योंकि जिस जनता से जो जिम्मेदारी मांगी थी, उस जनता ने वह जिम्मेदारी आपको बिना किसी हिचकिचाहट के दी है । तब आप यह कह कर जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते हैं कि इस हिंसा के लिए भाजपा, विपक्षी दल या अन्य कोई जिम्मेदार हैं। शासनारूढ़ होने के बाद मुख्यमंत्री का यह दायित्व है कि किसी भी प्रकार के शरारती तत्व, हिंसा फैलाने वाले व्यक्ति, किसी भी विचारधारा, वर्ग के लोग जो कोई भी आपके अनुसंधान में आते है, उन सबके विरुद्ध कड़ी से कड़ी कार्रवाई कर वह "तेवर" दिखाने का कष्ट करें जो तेवर चुनाव भर नरेंद्र मोदी का जवाब देने में दिखाए थे।
विधानसभा चुनाव संपन्न होने के बाद देश में किसी भी प्रदेश में ऐसी स्थिति पर नहीं हुई, जैसी पहली बार पश्चिम बंगाल में उत्पन्न हुई है। शपथ ग्रहण करने के पूर्व ही राज्यपाल, केंद्रीय गृह मंत्रालय व प्रधानमंत्री जी को कानून व्यवस्था को लेकर आवश्यक निर्देश देने पड़े। यद्यपि ज्यादा अच्छा यह होता है कि प्रधानमंत्री राज्यपाल से कानून व्यवस्था पर बात करने के बजाएं पहले चयनित मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को जीत की बधाई देकर कानून व्यवस्था पर भी चर्चा करते। (यद्यपि ट्वीट के माध्यम से पूर्व में वे बधाई दे चुके है) । उक्त निर्देशों के पीछे छुपी चेतावनी को ममता को एक सफल राजनीतिज्ञ होने के नाते पढ़ लेना चाहिए, बल्कि पढ़ना ही होगा। अन्यथा "हिंसा के साए' में ली गई शपथ कब असमय ही "खंडित" होकर अनुच्छेद 356 में "विलीन" हो जाए वह दिन न तो ज्यादा दूर रहेगा और न ही कोई आश्चर्य की बात होगी तथा न ही इस पर बहुत सिर खपाने की आवश्यकता होगी? अतः देश, केंद्र पश्चिमी बंगाल सरकार, ममता बनर्जी, टीएमसी और उनके कार्यकर्ताओं के साथ की समस्त नागरिकों के हित में यही होगा की हिंसा के तांडव का अंत कर शांति की स्थापना कर शांतिपूर्ण ढंग से सरकार राज्यपाल चलने दे और मुख्यमंत्री चलाएं ताकि जनता के विश्वास पर खरा उतरा जा सके । यही सही लोकतंत्र होगा।
अब थोड़ी सी चर्चा पिछले 72 घंटे की राज्यपाल के आचरण की भी कर ले। राज्यपाल जगदीप धनखड़ का रुख "समय की घड़ी" को देखते हुए निश्चित रूप से न तो संवैधानिक या नैतिक रूप से उचित कहा जा सकता है और न ही राज्य के हित में । शपथ ग्रहण के बाद यह वह समय था, जब दोनों महानुभाव एक दूसरे के सामने हाथ जोड़े खड़े "अभिवादन" कर रहे थे। यही "भावना" का संदेश पूरे प्रदेश में इस समय जाना चाहिए था कि दोनों के बीच अब आगे से "सौहार्दपूर्ण" वातावरण रहेगा । परंतु ऐसा लगता है की राज्यपाल से यहां पर थोड़ी चूक हो गई । चुनाव परिणाम आने के समय से लेकर शपथ ग्रहण दिलाने के बाद पत्रकारों से चर्चा करने तक गवर्नर के आचरण व व्यवहार पर जरा गौर कीजिए। चुनाव परिणाम के बाद तुरंत उत्पन्न हिंसा का दौर चलने के बाद निश्चित रूप से राज्यपाल ने खासकर प्रधानमंत्री से बातचीत के बाद ममता को कानून व्यवस्था सुधारने की तसदीक की थी। शपथ ग्रहण के बाद पत्रकारों से चर्चा करते हुए राज्यपाल ने यह स्वीकार किया कि उनके फोन करने के बाद ममता ने कार्रवाई की। इससे हिंसा कुछ रुकी है। फिर शपथ ग्रहण समाप्त होते ही यह कहना की कानून की स्थिति खराब है, ममता से संविधान का पालन करने को कहा, राज्य में कानून व्यवस्था का राज होना चाहिए। लोकतंत्र के लिए हिंसा ठीक नहीं। वास्तव में "नसीहत" देने का यह उचित समय व स्थान नहीं था। क्योंकि चुनाव परिणाम आने के दिन से शपथ ग्रहण तक कानून व्यवस्था का प्रश्न तकनीकी रूप से चुनाव आयोग के पास ही रहता है । इसलिए राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को कानूनी स्थिति सुधारने के लिए कम से कम कुछ समय तो (बिगर नसीहत दिए) अवश्य देना चाहिए । इसके जवाब में ममता ने पत्रकारों से से चर्चा करते हुए लोगों से शांति की अपील की, कड़ी कार्रवाई करने के साथ हिंसा बर्दाश्त न करने का संदेश दिया।
आगामी कुछ समय में समस्त पक्षों की "नियत कितनी साफ" है, यह स्पष्ट हो जाएगा। एक अच्छे, सुनहरे, विकसित व शांत बंगाल की आशा मे!
अभी अभी "न्यूज़ नेशन" चैनल पर डिबेट में जिस बेहुदी, बदतमीजी, बेशर्मी से टीएमसी के प्रवक्ता संजय सरकार जिन शब्दों का उच्चारण व कथन कर धमकी दे रहे थे, उसके लिए ममता को निश्चित रूप से तुरंत उन्हें पार्टी से बर्खास्त कर देना चाहिए। तभी ममता सिद्ध कर पाएंगी की वे हिंसा के सख्त खिलाफ में है।