मा. दिल्ली उच्च न्यायालय! दिल्ली पुलिस से ‘‘स्थिति रिपोर्ट‘‘ की पुर्न मांग! कितनी औचित्य पूर्ण? ‘‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका वि. प्रतिबद्ध जांच?!‘

‘राजीव खण्डेलवाल  


               दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर की गई एक पीआईएल में याचिकाकर्ता "हदय फांउडेंशन" के अध्यक्ष, राष्ट्रीय निशानेबाज डॉ दीपक सिंह द्वारा राष्ट्रीय युवक कांग्रेस अध्यक्ष श्रीनिवास, दिल्ली आप विधायक दिलीप पांडे, पूर्व विधायक मुकेश शर्मा, भाजपा सांसद गौतम गंभीर, प्रदेश भाजपा प्रवक्ता हरीश खुराना आदि के विरुद्ध रेमडेसिविर आदि दवाइयां, मेडिकल ऑक्सीजन, ऑक्सीजन कंसंट्रेटर व अन्य चिकित्सीय उपकरणों की जमाखोरी, कालाबाजारी और फ्रॉड के आरोप लगाए गए। याचिकाकर्ता द्वारा इन आरोपों के संबंध में (पिंजरे में बंद तोता) सीबीआई जांच की मांग की गई। न्यायालय ने उक्त मांग को अस्वीकार करते हुए दिल्ली पुलिस को उक्त आरोपों की न केवल प्राथमिक जांच कर प्रारंभिक रिपोर्ट देने के निर्देश दिए, बल्कि अपराध की स्थिति में प्राथमिकी दर्ज करने के लिए भी कदम उठाने को कहा। उक्त निर्देशों के परिपालन में पुलिस द्वारा उक्त प्रमुख ‘राजनेता‘ बने नागरिकों द्वारा की जा रही सेवा कार्यों व प्रकल्पो की प्रारंभिक जांच की जा कर समस्त सेवाभावी व्यक्तियों को ‘‘क्लीन चिट‘‘ दे दी गई। अर्थात इन लोगो द्वारा किये गये ‘‘निशुल्क’’ सेवाभावना के कार्य स्वेच्छा से, बिना किसी भेदभाव के किए गए  है व उनमें किसी तरह की जमाखोरी या कालाबाजारी नहीं की गई है। दिल्ली पुलिस ने उक्त निष्कर्षों के साथ अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट न्यायालय में पेश की। आश्चर्यजनक रूप से दिल्ली उच्च न्यायालय ने पुलिस द्वारा क्लीन चिट देने वाली प्रस्तुत प्राथमिक रिपोर्ट को स्वीकार न करते हुए आगे आदेश करते हुए दिल्ली पुलिस को आगे जांच कर पुनः ‘‘स्थिति रिपोर्ट‘‘ प्रस्तुत करने के साथ आश्चर्य में डालने वाली कुछ आश्चर्यजनिक टिप्पणियां की, जो आगे उल्लेखित  हैं। परंतु यह समझ से परे हैं कि न्यायालय आखिर क्यों "कुएं में बांस डाल डाल कर" तथाकथित आरोपियों के दोष ढूंढने में लगा हुआ है।

            ‘‘ जमाखोरी के आरोपों की उचित जांच हो! राजनीतिक फायदे के लिए जमाखोरी नहीं की जा सकती है! दवा कहां से ला रहे हैं! दवाई इकट्ठा करना नेताओं का कार्य नहीं है! भलाई करना है तो डीजीएचएस को दवाई दें"। ये कुछ टिप्पणियां  न्यायालय द्वारा  की गई । हद तो तब हो गई जब न्यायालय ने यह कथन किया कि ‘‘कई मरीजों ने सिर्फ इसलिए दम तोड़ा है क्योंकि दवाई नहीं मिली और नेताओं ने दवाई बड़ी मात्रा में अपने पास रखी है’’। दिल्ली उच्च न्यायालय की ये समस्त टिप्पणियां न केवल अचंभित करने वाली है, बल्कि ‘‘न्यायिक कार्यप्रणाली व अवधारणा‘‘ के स्तर पर भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न चिन्ह लगने का अनचाहा अवसर भी प्रदान करती है। इन अवांछित व असामयिक टिप्पणियों के कारण ‘‘जांच टीम’’ पर भी क्या एक "विशेष दिशा में" जांच को ले जाने का अनावश्यक दबाव नहीं पड़ सकता है? याद कीजिए! 1975 का आपातकाल! जब इंदिरा गांधी के जमाने में ‘‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका‘‘ का नारा दिया गया था। उच्च न्यायालय की उक्त टिप्पणियों के साथ पुनः ‘‘स्टेटस रिपोर्ट‘ देने के निर्देश से कहीं ‘‘प्रतिबद्ध जांच‘‘ का खतरा उत्पन्न नहीं हो सकता है? प्रायः अस्पष्टता होने पर ही मामले में आगे पुनः जांच की आवश्यकता होती है। इन टिप्पणियों की प्रथक प्रथक संक्षिप्त व्याख्या व होने वाले प्रभाव की आगे चर्चा करते हैं।

    ‘‘दवाई इकट्ठा करना नेताओं का काम नहीं‘‘! अतः दवाइयों के स्टॉक‘‘(मानो की कि ये सेवा भावी दवाइयों के स्टॉकिस्ट 'व्यापारी' हो?) का वितरण डीजीएचएस के अधीन दिल्ली के सरकारी अस्पतालों के माध्यम से ही दवाइयों का वितरण होना चाहिए। तब ऐसी टिप्पणी को देखते हुए मा. उच्च न्यायालय से क्या यह नहीं पूछा जा सकता है कि ‘‘दवाइयां‘‘ वितरित करने का काम क्या न्यायालय का है? जैसा कि न्यायालय रेमडेसिविर, ऑक्सीजन और वैक्सीन वितरित करने के संबंध में वर्तमान में समय-समय पर निर्देश देते चले आ रहे हैं? मूल रूप से न्यायालय का कार्य किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा विधान व संविधान द्वारा स्थापित व्यवस्था का उल्लंघन किए जाने की स्थिति में उसे सजा देने का यह कानून की वैधता की व्याख्या  तक ही होता है। यहां पर तो न्यायालय ने जनता को उसी चरमराते तंत्र सरकारी अस्पताल की ओर ही ‘‘वापस धकेलने‘‘ का निर्देश दिया है, जिस दिल्ली के स्वास्थ्य ढांचे को स्वयं न्यायालय ने ‘‘चरमरा गया ठहराया‘‘ था। इसी चरमरा गई व्यवस्था के कारण ही तो सेवाभावी नागरिकों को सेवा के लिए सामने आने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

     ज्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न इससे यह उत्पन्न होता है कि  प्रारंभिक जांच के इस आदेश ने राष्ट्रीय कोरोना आपदा

 काल में देश भर में चल रहे विभिन्न व्यक्तिगत व संस्थागत सेवा प्रकल्पों के ‘‘आशय‘‘ पर प्रश्नवाचक लगाकर ‘‘दुराशय‘‘ की श्रेणी में सशंकित कर दिया। इस कारण से ऐसे क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्तियों के मन में शंका, आशंका, कुशंका, घबराहट व असुरक्षा की भावना उत्पन्न हो सकती है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। "होम करते अपने हाथ कौन जलाना चाहेगा" ? सेवा भाव कार्य के लिए खासकर इस आपदाकाल में भी हमे सभी सरकारी नियमों व प्रतिबंधों का ‘‘शाब्दिक अर्थों में पूर्ण व अक्षरशः‘‘ पालन कराने में, "लकीर का फकीर' बनने के बजाए कुछ ‘‘नरम रूख़’’ अपनाना उचित नहीं होगा? खासकर इस स्थिति को देखते हुये कि सरकार स्वयं इस स्वास्थ्य आपदाकाल में नियमों को शिथिल करते हुए मेडीकल कालेज के अंतिम वर्ष के छात्रों को भी फ्रंट लाइन स्वास्थ्य वर्कर बना रही है। इसीलिए सेवाभावी संस्थाएं और नागरिकगण संकट की इस घड़ी में चिंता किये बिना यथासंभव स्वयं के द्वारा और समाज से सहयोग लेकर जरूरत मंद पीडि़तों की निशुल्क निस्वार्थ मदद करते आ रहे हैं, कर रहे है, और करते रहेगें।

     परन्तु दुखद बात यह है कि उच्च न्यायालय ने याचिका में (बिना पुष्ट सबूतों के) आरोपित तथ्यों का संज्ञान लेते हुए पुलिस को जारी किए गए निर्देशों से शांतिपूर्ण तरीके से चल रही इन सेवा भावनाओं पर पड़ने वाले ‘‘दुष्परिणाम‘‘ का संज्ञान लेने में व आकलन करने में न्यायालय शायद असफल रही है। अन्यथा न्यायालय को याचिकाकर्ता को सीधे उच्च न्यायालय आने के पहिले प्रथमतः ‘‘एफआईआर‘‘ दर्ज  कराने के निर्देश देने थे और समस्त विद्यमान क़ानूनी प्रक्रियायों (निम्न न्यायालय में निजी शिकायत दर्ज कराने की कार्यवाही सहित) का पालन करने के बावजूद प्रथम सूचना पत्र दर्ज न होने पर ही पुलिस को जांच के निर्देश देने थे। न्यायालय की इससे ज्यादा भूमिका नहीं थी। दिल्ली पुलिस को जांच के आदेश देने के पूर्व तथाकथित आरोपित किये गये व्यक्तियों का भी  पक्ष यदि उच्च न्यायालय सुन लेता तो, शायद ऐसी जांच की स्थिति ही उत्पन्न नहीं होती? और इस कारण से समाज के सम्मानित सेवा में संलग्न व्यक्तियों की ऐसी ‘‘किरकरी‘‘ नहीं होती। "अपनी पगड़ी उछालवाना" कोई भी नहीं चाहता है।

      यह समझ से परे है कि माननीय उच्च न्यायालय इस मामले में इतनी बेहद ‘‘संवेदनशील‘‘ क्यों है? जो संकेत निम्न टिप्पणीयों से निकलता है। ‘‘सियासी फायदे के लिए दवाइयों की जमाखोरी नहीं की जा सकती है’’? ‘‘जब बाजार में दवाई उपलब्ध नहीं है तो इन महानुभावों को कैसे प्राप्त हुई? इसकी जांच की जावे’’। प्रश्न यह है कि क्या किसी भी हित ग्रहिता ने सेवा भावियों को दवाइयों व इलाज के लिए ‘‘कालाबाजारी की कीमत तो छोडि़ए‘‘ कोई ‘‘शुल्क‘‘ दिया है? परंतु आप विधायक इमरान हुसैन के इसी तरह के मामले में  स्वयं न्यायालय ने अपने संसाधनों से जुटाए गए व जनता के बीच बांटे गए ऑक्सीजन सिलेंडर को ‘‘जमाखोरी‘‘ नहीं माना है। मामले की एक जैसी प्रकृति होते हुए भी  इमरान खान मा. न्यायालय की आंख के तारे  लग रहा है  व "अन्य"  आंख की किरकिरी ? ब्लैक मार्केट से ऊंचे दामों  पर बिना बिल के दवाइयां इंजेक्शन मेडिकल उपकरण खरीद कर  जरूरतमंद मरीजों को  निशुल्क देना  क्या कालाबाजारी है ?  क्या यह अपराध कहलायेगा? भ्रष्टाचार  में जहां दोनों व्यक्ति अपराधी  माने जाते हैं, ठीक इसी प्रकार क्या  कालाबाजार से  खरीदने कर निशुल्क सेवा देने वाला सेवाभावी व्यक्ति भी  अपराधी होगा ? अदालत ने  रिपोर्ट को "अस्पष्ट और आंखों में धूल झोंकने वाला" बतलाते हुए कहा "क्योंकि कुछ राजनीतिक लोग इसमें शामिल हैं इसलिए आप जांच नहीं करेंगे"?  क्या इसके "उलट" एक युक्तियुक्त "आशंका" उत्पन्न नहीं हो सकती है कि जांच रिपोर्ट "आशा" के अनुरूप न होने के कारण  इसलिए  स्वीकार नहीं की जा सकती है?  क्योंकि मामला शायद कुछ राजनीतिक लोगों से जुड़ा है ? उच्च न्यायालय के उक्त रुख से  ऐसे अनेक  परेशान करने वाले  प्रश्नों के उत्पन्न से तथाकथित सियासी फायदे के लिए की जाने वाली "सेवा" शायद बंद हो जाए? "यत्नम विना रत्नम  लभ्यते"  इस उक्ति के अनुसार राजनीतिक फायदे के लिए ही सही सेवा कार्य करना गलत व अनैतिक कैसे हुआ? परंतु इस आपदा काल में सेवा एक दूसरे तरीके से भी की जा रही है। अनेक सेवाभावी व्यक्ति जिनमें राजनेता से लेकर उद्योगपति, सेलिब्रिटीज, वालीवुड़, खिलाड़ी तक शामिल हैं, "शारीरिक मानसिक सेवाएं" न देकर अपनी आर्थिक क्षमता अनुसार प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री रिलीफ फंड में लाखों करोड़ों रुपए के चेक जमा करा के ‘‘फोटो सेशन‘‘ कर मीडिया व सोशल मीडिया में छप रहे हैं। लेकिन यह ‘‘सियासी फायदा‘‘ नहीं कहलाता है? और न ही यह ‘‘पैसों की जमाखोरी‘‘ कहलाती है? क्योंकि चेक से भुगतान देने पर न्यायालय यह विधिक ‘‘परिकल्पना’’ (‘‘प्रिज्यूमशन‘‘) कर लेता है कि दान की राशि पर कर चुकाया होगा। इसलिए आयकर विभाग से इसकी जांच की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन ‘‘वस्तुओं‘‘ के द्वारा सेवा प्रदान किए जाने पर उस वक्त उन ‘‘वस्तुओं के पाने से लेकर वितरित‘‘ करने तक क्या समस्त नियमों का पालन किया है अथवा नहीं, इसकी जांच पर जांच कराने पर उच्च न्यायालय तुला हुआ लगता है, कारण?

इस समय पूरे देश में सैकड़ों संस्थाएं और लोग सेवा भाव में लगे हुए हैं। दिल्ली के गुरुद्वारे गैस लंगर प्रारंभ कर ऑक्सीजन सिलेंडर लाकर जरूरतमंद लोगों के ऑक्सीजन गैस दे रहे हैं। तकनीकी रूप से गुरुद्वारे में सिलेंडर इकट्ठा करना शायद जमाखोरी और नियम का उल्लंघन न्यायालय की दृष्टि में हो सकता है? तो फिर क्या ऐसी समस्त सेवाओं के लिए न्यायालय ने दिल्ली पुलिस को जांच करने के आदेश नहीं दे देनी चाहिए? फिर न्यायालय से यह भी पूछा जाना चाहिए की उनकी आंखों के सामने राजनेताओं द्वारा खुलेआम मास्क पहनने के नियमों का पालन अभी भी पूर्ण रूप से नहीं किया जा रहा है। ऐसे सैकड़ों वीडियो व समाचार मीडिया में आपको मिल जाएंगे। तब न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेते हुए दिल्ली पुलिस को ऐसे कोरोना वायरस के प्रोटोकॉल्स के उल्लंघन के लिए समस्त मामलों में स्थाई रूप से जांच कर एफआईआर दर्ज करने का आदेश क्यों नहीं दे देना चाहिए? जबकि पिछले कुछ समय से  न्यायालय ने स्व संज्ञान से अनेक मामले सामने लाये है।

मुझे लगता है कि माननीय उच्चतम न्यायालय को इस मामले में तुरंत स्वत संज्ञान से हस्तक्षेप कर उचित आदेश पारित करना चाहिए। यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि माननीय उच्च न्यायालय के उक्त आदेश से सेवाभावी व्यक्तियों, संस्थानों के सम्मान पर कहीं न कहीं अनावश्यक व गलत रूप से ‘‘आंच‘‘ पहुंच रही है। न्यायालय इस बात का ध्यान और हमेशा देखना चाहिए कि हम जिस समाज में रहते है, उसमें आज भी "ख़ाकी ड्रेस" पहने कोई व्यक्ति के किसी घर में चले जाने पर पडोसीयों से लेकर उसे देखने वाले व्यक्ति के मन में उस व्यक्ति के प्रति "शंका का भाव" पैदा हो जाता है। इसीलिए अनावश्यक शंका के भाव पैदा हो जाने के बाद भले ही उसे बाद में शंका से मुक्त कर दे, दा़ग तो दाग ही होता है व ‘‘निशान’’ छोड़ ही जाता है। इस बात को समझने की आवश्यकता है। इसीलिए कई बार कहा गया है कि हमारी न्यायिक प्रणाली में सजा से ज्यादा खौंफ ‘अभियोजन’ (प्रॉसीक्यूशन) नहीं बल्कि ‘‘उत्पीड़न’’ (पर्सीक्यूशन) है।

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