आर्युवेद विरूद्ध एलोपैथी! गलत। आयुर्वेद(+) एलोपैथी! सही, ‘‘स्वतंत्र’’। कोविड-19: ‘‘अनिश्चितता‘‘ की नीति से भरपूर।

 राजीव खंडेलवाल :-

देश में इस समय ‘‘लॉकडाउन की विभिन्न स्थितियों‘‘ के कारण अधिकांशतः लोग फुर्सत में हैं। इसलिए न्यूज चनलों और न्यूज पेपर्स में अधिकांशतः ‘‘अनर्गल बहस‘‘ ‘‘बहसहीन मुद्दों‘‘ पर आप देख पढ़ रहे हैं। जैसा कि कहा भी जाता है कि ‘‘एन एम्प्टी माइंड इज ए डेविल्स वर्कशॉप‘‘। इसी कड़ी में वर्तमान में ‘‘आयुर्वेद बनाम एलोपैथी‘‘ की बहस विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर चल रही है और सोशल मीडिया ने इसे कुछ ज्यादा ही ‘‘हवा‘‘ दे रही है। वास्तव में प्रत्येक पैथी के रोग निदान के मूल सिद्धांत व इलाज की पद्धति (तरीका) एक दूसरे से अलग है। अतः बहस का उक्त मुद्दा ही आधारहीन व औचित्यहीन है।

हमारे धर्म शास्त्रों में चार वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) बताए गए हैं। परन्तु कभी भी हमने इनके बीच परस्पर आरोप-प्रत्यारोप की बहस ‘आलोचकों’ के माध्यम से न सुनी न देखी। उसका कारण एकमात्र शायद यही हो सकता है कि प्रत्येक ‘‘वेद‘‘ अपने आप में परिपूर्ण है, व विस्तृत ज्ञान व शिक्षा प्रदान करते हैं। इन चारों सर्वमान्य वेदों के साथ ‘‘आयुर्वेद‘‘ निश्चित रूप से एलोपैथी से काफी पुरानी विद्या है। यद्यपि ‘‘वेदों’’ में प्राकृतिक चिकित्सा का वर्णन अवश्य मिलता है। तथापि आयुर्वेद को वेदों के साथ में न रखने के कारण ही वर्तमान में शायद अपनी ‘‘नाराजगी‘‘ व्यक्त करने का मौका मिलने के कारण ही यह विवाद अनावश्यक ‘‘विवादास्पद बहस‘‘ में परिणित हो चुका है। स्वास्थ्य सुधार व बनाए रखने के लिए जिम्मेदार दोनों ‘‘पैथी‘‘ (विधा) के बीच उत्पन्न यह ‘‘मनोमलिन्य‘‘ एवं विवाद देश के ‘‘स्वास्थ्य‘‘ के लिए कदापि उचित नहीं है। ‘‘अविवेकः परम्आपदाम पघ्मः्‘‘।

इस उत्पन्न विवाद के मुद्दे के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति देश के स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन है। वह इसलिए कि उन्होंने उस बाबा रामदेव जिनकी कोरोना के उपचार का दावा करने वाली दवाई ‘‘कोरोनिल‘‘ की ‘‘लॉन्चिंग‘‘ करते समय मंच पर आकर बाबा के साथ अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करा कर आम जनता को कोरोनिल दवाई के संबंध में दिए जाने वाले ‘‘मैसेज‘‘ के ‘‘परसेप्शन‘‘ को जाने अनजाने में सहयोग प्रदान किया था। इस कारण से वे एलोपैथी डॉक्टरों के राष्ट्रीय संघठन ‘‘आईएमए‘‘ की आलोचना के शिकार भी हुए थे। बावजूद इसके, बाबा रामदेव द्वारा अपने दिए गए आपत्तिजनक भाषण के संबंध में पहली बार स्पष्टीकरण देने के बावजूद डॉ हर्षवर्धन ने बाबा को पत्र लिखकर सिर्फ माफी मांगने को ही नहीं कहा, बल्कि उक्त विवादास्पद बयान को वापस लेने को भी कहा, जिस पर एलोपैथिक डॉक्टरों सहित बहुसंख्यक नागरिकों को भी आपत्ति थी। अंततः बाबा ने भी डॉक्टर हर्षवर्धन के लिखे पत्र के प्रत्युत्तर में अपने कथन को  वापस ले लिया और माफी भी मांगी। आज के सार्वजनिक जीवन राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे लोकप्रिय व्यक्तित्व जिसके लाखों  अनुयायी हो, के द्वारा बयान वापस लेने की घटनाएं ‘‘विरले‘‘ ही होती है। इस प्रकार एक महत्वपूर्ण ,दृढ़ निश्चित, परिणाम जनक ‘‘एक्शन (कार्रवाई) बाबा के विरूद्ध लिए जाने के बावजूद मीडिया सहित स्वयं भाजपा के प्रवक्तागण भी  डॉ हर्षवर्धन को इस दृढ़ता व ठोस कार्रवाई के लिए बधाई देना शायद भूल गए। हमारी राजनीति का वर्तमान में यही ‘‘चरित्र‘‘ रह गया है कि हम सिर्फ और सिर्फ आलोचना करना ‘‘अच्छी तरह से नहीं‘ बल्कि ‘‘बुरी तरह से‘‘ जानते हैं, और अच्छे किए गए कार्यों के लिए बधाई देकर ‘‘बूस्ट‘‘ (प्रोत्साहित) करना शायद हमारी फितरत में है ही नहीं, और शायद हम उसे ‘‘अपराध‘‘ मानते हैं। 

देश में आयुर्वेदिक व एलोपैथिक के अतिरिक्त होम्योपैथिक, यूनानी, सिद्ध, योग एवं व्यायाम, एक्यूपंचर, प्राकृतिक चिकित्सा (नेचुरोपैथी) आदि अनेक चिकित्सा विधाएं (पद्धतियाँ) मौजूद है, जिनके द्वारा स्वास्थ्य लाभ प्राप्त किया जाता है। ‘‘आधुनिक चिकित्सा पद्धति को ‘‘एलोपैथी‘‘ कहा जाता है। और आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ‘‘एलोपैथी‘‘ नाम होम्योपैथी के जन्मदाता जर्मन डॉक्टर सैमुअल हैनीमैन ने वर्ष 1796 में दिया था। वैसे एलोपैथी की उत्पत्ति ईसा के 460 वर्ष पूर्व ‘‘हिप्पोक्रेट्स‘‘ ने की थी, ऐसा माना जाता है। इसमें भी कोई शक नहीं है कि आयुर्वेद का जनक हमारा देश भारत ही है, जबकि एलोपैथी अंग्रेजों द्वारा। यह बात भी बहुत हद तक सही है की एलोपैथी को छोड़कर अन्य पैथी के इलाज से भले ही कोई फायदा न हो परंतु सामान्यता उसके ज्यादा ‘‘दुष्प्रभाव‘‘ भी नहीं होते हैं।

जहां तक आयुर्वेद का प्रश्न है, प्रथम तो बाबा रामदेव ‘‘आयुर्वेदाचार्य‘‘ नहीं है, बल्कि ‘‘योगाचार्य‘‘ है। आयुर्वेदिक या एलोपैथी दवाई के ‘‘निर्माता‘‘ हो जाने मात्र से आप ‘‘डॉक्टर’’ नहीं हो जाते है। निसंदेह बाबा व उनके सहयोगी आचार्य बालकिशन आयुर्वेद के एक अच्छे ज्ञानी है, जिन्होंने इस विषय पर काफी अध्ययन कर ज्ञानवर्धक साहित्य भी लिखा है। हमारे देश में केंद्र व राज्यों के स्तर पर स्वास्थ्य विभाग के अतिरिक्त ‘‘आयुष विभाग‘‘ भी है, जिसमें एलौपैथी को छोड़कर अन्य समस्त पैथी शामिल है। आयुष विभाग का कार्य इन अन्य समस्त पैथी का संवर्धन, विकास और देश के दूरस्थ अंचल तक विस्तार कर स्वास्थ लाभ सेवा पहुंचाने का है। यद्यपि आज भी यह बात सच है कि ‘‘बीएएमएस’’ की डिग्री प्राप्त करने वाले ज्यादातर आयुष डॉक्टर प्रमुख रूप से एलोपैथी दवाई का नुस्ख़ा प्रायः लिखते है। 

जहां तक ‘‘योग‘‘ का प्रश्न है, मूल रूप से ‘‘योग‘‘ हमारे देश में प्राचीन समय से ऋषि मुनियों के द्वारा चला आ रहा है। श्रीमद् भागवत गीता में तो योग को आरोग्य का साधन ही नही वरन कर्मबंधन से मुक्ति अर्थात मोक्ष का उपाय बताया गया हैय यथा, ‘‘योगः कर्मसु कौशलम्‘‘। निश्चित रूप से वर्तमान में बाबा रामदेव को मूल योग को ‘‘योगा‘‘ के रूप में देश के दूरस्थ स्थानों तक पहुंचाने का श्रेय जाता है। और इस बात के लिए उनको निश्चित रूप से बधाई दी जानी चाहिए । यद्यपि 20 वीं शताब्दी में ‘‘योग‘‘ को आगे बढ़ाने के लिए वर्ष 1964 में स्वामी सत्यानंद सरस्वती (वर्तमान में स्वामी निरंजनानद) द्वारा मुंगेर की गंगा नदी के तट पर विश्व का पहला योग विद्यालय स्थापित किया । मूलतः योग, आयुर्वेद और एलोपैथ परस्पर विरोधी न होकर एक दूसरे के पूरक है। एलोपैथिक डॉक्टर भी कुछ मामलों में इलाज व ऑपरेशन के बाद योग और व्यायाम करने की सलाह भी देते हैं। आयुर्वेद की आठ शाखायों में एक ‘‘शल्य तंत्र‘‘ होने के बावजूद वह यह मानता है कि कुछ स्थितियों में ‘‘सर्जरी‘‘ का ‘‘रिप्लेसमेंट‘‘ आयुर्वेद के पास नहीं है। और योग भी समस्त बीमारियों (जैसे किडनी, लिवर ट्रासप्लाटेशन आदि) से ‘‘निरोग‘‘ करने का दावा नहीं कर सकती है। अतः यह विवाद करना ही व्यर्थ है कि कोरोनाकाल में योग व आयुर्वेद से 90 प्रतिशतः संक्रमित ठीक हुए हैं अथवा करोड़ों लोगों को डॉक्टरों ने ठीक किया है। प्रश्न यह है कि क्या दोनों तीनों विधाएं योग आयुर्वेद और एलोपैथ के विशेषज्ञ मिलकर इस कोविड-19 से नहीं लड़ सकते हैं? और मीडिया इनको लड़ाने का कार्य क्यों कर रही है ?

        एक बात को स्पष्ट रूप से और समझ लेना चाहिये कि दोनो पैथी में ‘‘चुनाव‘‘ के लिये नागरिकगण स्वतंत्र है। अर्थात जनता के बीच इनकी पहुंच पर सरकार निरपेक्ष व निष्पक्ष है। तब जनता पर ही यह छोड़ दीजिये ना कि कौन सी पैथी श्रेष्ठतर है, और 90 प्रतिशत कोरोना संक्रमित किस पैथी से ठीक हुये है? ‘‘निम्न स्तर‘‘ पर जाकर ‘‘शब्दों के बाण‘‘ (जिसे यहाँ दोहराये जाने की जरूरत नहीं है) द्वारा एक दूसरे को ‘‘घायल‘ करने के बाद आपको ‘‘इलाज‘‘ कराने हेतु तो अंततः जनता के पास ही तो आना पड़ेगा? जहां तक बाबा का यह दावा कि 98%  बीमारियों के इलाज के लिए योगा और आयुर्वेद, श्रेष्ठ है, तथा दवाइयों के व्यापार से मुनाफा नहीं कमाते हैं बल्कि चैरिटी में दान कर देते हैं , तथ्यात्मक रूप से गलत, भ्रामक और बड़बोला पन है, जिससे बचना चाहिए।

                   बात अब कोविड-19 से बचने के लिए समय-समय पर जारी प्रोटोकॉल बिंदुओं व सावधानियों की ‘‘अनिश्चितता‘‘ की पड़ताल कर ले। क्योंकि इस संबंध मे प्रारंभ से लेकर अभी तक अनेकोंनेक विरोधाभास, भ्रम व अनिश्चितता की स्थिति शासन प्रशासन, आईसीएमआर व नागरिकों के स्तर पर विद्यमान है। अतः इन सब ‘‘अनिश्चितताओं‘‘ को आगे क्रमबद्ध कर लेते हैं, ताकि एक नजर में आपके सामने आईने समान स्थिति स्पष्ट हो सके।

 निम्न प्रमुख ‘‘अनिश्चितताए‘‘ ये है।

1 संक्रमण के लक्षण। 

2 टेस्टिंग किट। 

3 वेरिएंट्स।

4 मास्क।

5 मानव दूरी।

6 हैंड वाशिंग एवं सैनिटाइजेशन।

7 वैक्सीन।

8 इम्यूनिटी।

9 हर्ड इम्यूनिटी।

10 रेमडेसीविर इंजेक्शन।

11 स्टेरॉइड़।

12 प्लाजमा थेरेपी।

13 कोरनटाइन व होम कोरनटाइन।

14 कोविड़ की दूसरी व तीसरी लहर। 

15 कोविड़ मौत के कारण एवं प्रकारः-कोविड/कोविड रहित/कोविड आशंकित।

16 कोविड़ मौत के आंकड़े।


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