‘‘चोर-चोर मौसेरे भाई’’! इस ‘‘हमाम में सब नंगे हैं’’! क्या ?



राजीव खण्डेलवाल:-    आखि़रकार लोकसभा व अगले दिन राज्य सभा में 127 वां संविधान संशोधन विधेयक (बिल) उपस्थित 385 सदस्यों की "सर्वसम्मति" से बिना कोई विरोध दर्ज और हंगामे के पारित हो गया। इस संशोधन के काऩून बनने पर पिछडे़ वर्ग (ओबीसी) की सूची तैयार करने के केन्द्र के अधिकार राज्यों को पुनः प्राप्त हो जायेगें, जो अधिकार केन्द्र सरकार ने वर्ष 2018 में कानू़न में संशोधन कर राज्यों से अधिकार छीन कर अपने हाथों में ले लिये थे, जो राज्यों के पास वर्ष 1993 से थे। इसके द्वारा ही राज्यों को आरक्षण सूची में किसी जाति को जोड़ने-घटाने का अधिकार था। इसलिए संसद में यह संविधान संशोधन विधेयक लाना पड़ा। क्योंकि 5 मई 2021 को उच्चतम न्यायालय ने मराठा आरक्षण पर फैसला देते हुए एस.ई.बी.सी एक्ट को घोषित करते हुये यह निर्णित किया था कि महाराष्ट्र सरकार को किसी जाति को आरक्षण सूची में जोड़ने-घटाने का अधिकार न होने के कारण आरक्षण देने का अधिकार नहीं है। इस प्रकार इस संविधान संशोधन के कानून बन जाने पर उच्चतम न्यायालय का उक्त निर्णय  "निष्प्रभावी" हो जायेगा। 

              संसद का यह मानसून सत्र प्रारम्भ से लेकर सत्रावसान होने तक "सिर फुट्टवल" होकर लगभग बेकार (वाश आउट) हो गया।इस सत्र में लोकसभा मात्र कुल 21 घंटे चली व 22 प्रतिशत कार्य हुये। तथापि सरकार फिर भी इन हंगामों के बीच 127 वां संविधान संशोधन विधेयक सहित 20 महत्वपूर्ण कानू़न बिना बहस (सिर्फ इस विधेयक को छोड़कर) के पास कराने में सफल रही है। इसके पूर्व तक प्रत्येक दिन पेगासस जासूसी प्रकरण, कृषि कानू़नों इत्यादि पर विपक्ष की बहस की मांग न मानी जाने से निरंतर व्यवधान व हंगामे के कारण बिना किसी बहस के सदन की कार्यवाही लगातार स्थगित होती रही। 

           संसद के इस सत्र में विध्न व रूकावट के लिये सरकार लगातार यह बतलाने का प्रयास करती रही कि संसद के बाहर के साथ ही अब भीतर भी विपक्ष पूर्णतः गैर उत्तरदायी व अराजकता पूर्ण व्यवहार कर सदन की कार्यवाही जानबूझकर चलने नहीं दे रहा है। वह "जिम्मेदार" विपक्ष की जिम्मेदारी व भूमिका नहीं निभा रहा है। इस कारण जनता के पसीने के टैक्स का करोड़ों रू बेकार हो रहा हैं। सदन के एक दिन के चलने का खर्चा लगभग 1.5 करोड़ रूपया होता है। इसके उलट विपक्ष, सरकार पर यह आरोप लगातार लगा रही है कि सरकार पेगासस जासूसी पर बहस से क्यों कतरा रही है ? सदन चलाने की जिम्मेदारी व दायित्व सत्ता पक्ष की ही है, विपक्ष की नहीं है। और सत्ता पक्ष अपनी जिम्मेदारी निभाने में असफल रही है। जनता के करोड़ों रू.(एक अनुमान के अनुसार लगभग 135 करोड़ रू.) की बरबादी के लिये सत्ता पक्ष जिम्मेदार हैैं, विपक्ष नहीं।

       उक्त संविधान संशोधन विधेयक सदन की जिन "विषम" परिस्थितियों को विधेयक के लिए "सम" (अनुकूल) करते हुए पारित किया गया है, उससे  आइने समान यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘‘जहां चाह है, वहां राह है’’ व "मियां बीबी राजी तो क्या करेगा काजी"। जब दोनो पक्षों ने यह तय कर लिया कि ओबीसी आरक्षण संशोधन विधेयक पारित करना है, तब बगैर किसी ना नुकुर के और पेगासस जासूसी पर बहस हुए बिना ही उपस्थित सदस्यों की सर्वसम्मति से बिल पारित कर दिया गया। बात-बात पर सत्ता-विपक्ष के बीच तू-तू, मैं-मैं के साथ दिन-प्रतिदिन होने वाली बहस के बीच ऐसे कम ही अवसर आते है, जब किन्ही मुद्दों पर सत्ता-विपक्ष की परस्पर सहमति होकर सर्वनुमति हो। यह सहुलियत की राजनीति जैसा कि कहा जा रहा है, से भी दो कदम आगे ही है।

         आखि़र ओबीसी (पिछडा वर्ग) के हितों के लिये लाये उक्त बिल में ऐसी क्या बात है, जिस पर सर्वदलीय बैठक बुलाए बगैर ही समस्त पक्षों के बीच परस्पर ’’दाड़ी पर हाथ लगायें बिना’’ स्वयं ही स्वप्रेरणा से सर्वसम्मति बन गई? यदि ओबीसी वर्ग के वोट बैंक की राजनीति को देखते हए यह सहमति बनी है तो, निश्चित रूप से यह एक खतरनाक सहमति व सर्वानुमति है जो देश की एकात्मकता की भावना को चीर-चीर करने वाली हैं। ऐसा लगता है, आरक्षण का मुद्दा महत्वपूर्ण नहीं, बल्कि आरक्षण की राजनीति होकर उसमें सिर्फ वोट की राजनीति के ’दर्शन’ कर प्रर्दशन कर आरक्षण के प्रति इस कदर अंधभक्ति दिखाई जा रही है कि एक समय शायद ऐसा आ सकता है, जब लगभग सभी वर्ग ही कहीं आरक्षित न हो जाये। (जैन समुदाय को अल्पसंख्यक वर्ग का दर्जा पूर्व में ही दिया जा चुका है।) तब आरक्षण का वास्तविक फायदा ही समाप्त हो जायेगा। आरक्षण के इस संकट को आरक्षण के हिमायती भी शायद नहीं सोच पा रहे है। सिर्फ देश का उच्चतम न्यायालय ही चीन की दीवार समान इस आरक्षण की सीमा के बीच आकर खड़ा हुआ है। यद्यपि ‘चीन’ शब्द का उपयोग उचित नहीं है। लगभग 30 वर्ष पूर्व "इंदिरा साहनी वि. संघ" के मामले में तय की गई   आरक्षण की 50 प्रतिशत की सीमा, को लगातार बनाएं हुये इस सीमा में वृध्दि के प्रत्येक प्रयास को समय-समय पर उच्चतम न्यायालय ने अवैध घोषित किया हैं। 

           एक देश, एक संविधान, एक झंडा, एक समान व एक कर की दर, एक राष्ट्र भाषा, एक नागरिकता, एक समान सिविल कोड आदि की पहचान लिऐ हुये वर्षो से इन मुद्दों की वकालत करती हुई जनसंघ से भाजपा का यह सफ़र सत्ता में आने के बाद आरक्षण व अत्याचार निवारण अधिनियम के मुद्दे पर बदल जाता है। पहले उच्चतम न्यायालय द्वारा अत्याचार निवारण एक्ट 1989 के कुछ प्रावधानों को अवैध घोषित किये जाने पर उच्चतम न्यायालय के आदेश को निष्प्रभावी बनाने के लिए भाजपा के नेतृत्व की एनडीए सरकार ने संविधान संशोधन विधेयक 2018 पारित करवाया। और अब देश की सामाजिक एकता बनाए रखने की भावना के विपरीत ओबीसी आरक्षण के लिए संविधान संशोधन विधेयक पारित किया गया। एससी, एसटी या ओबीसी वर्ग के आरक्षण ‘‘पर प्रश्न’’ या ’सवाल’ नहीं है। इन सभी वर्गो को आरक्षण मिलना चाहिए। परन्तु आरक्षण का आधार जातिगत न होकर आर्थिक आधार पर होना चाहिए। 

                       इस देश का यह "कटु सत्य" है कि जब तक जातिगत आधार पर आरक्षण बना रहेगा, नागरिको के बीच पूरी तरह से "सामाजिक समरसता" नहीं बन पायेगी। इस दिशा में अब लोगो की सोच भी  तेजी से आगे बढ़ रही है। लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसी सोच रखने वालो का "वोटिंग पेर्टन" गोंद लगी हुई उस एकता समान दर्शित नहीं होती है, जैसा कि जातिगत आधार वाले वर्गाे की चुनावी वोटिग में दिखती है। किसी भी राजनैतिक पार्टी के लिए अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए, मजबूरी में ही वे वोटों के ख़ातिर जातिगत आरक्षण की समर्थन करने लग जाते है। परन्तु देश कम से कम राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा से यह जरूर उम्मीद कर रहा था कि वह आरक्षण के गलत आधार जातिगत को बदलकर सही आधार आर्थिक लायेगी, ताकि ‘अंत्योदय’ के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय की "एकात्म मानववाद" की वह कल्पना को साकार कर सकें, जहां अंतिम छोर पर खड़े रहने वाला व्यक्ति भी "आर्थिक आरक्षण" की सहायता से उसके प्रथम पंक्ति में आने का रास्ता खुल जाये। इसी दृष्टि से अंत्योदय कार्यक्रम भाजपा के विभिन्न प्रदेशों में सत्ता में आते ही लागू की गई थी। सर्वप्रथम राजस्थान में भैरोसिंह शेखावत ने, फिर मध्यप्रदेश में सुन्दरलाल पटवा सहित अनेक भाजपा मुख्यमंत्रियों ने आर्थिक रूप से कमजोर व पिछडे वर्गो के उदय व विकास के लिए "अंत्योदय योजना" लागू की।

      देश भाजपा से यह उम्मीद करता है, जिस प्रकार भाजपा ने अनुच्छेद धारा 370 को समाप्त कर ’’कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश एक है’’ की भावना को वास्तविकता प्रदान कर साहसपूर्ण अकल्पनीय कार्य किया है। उसी साहस की उम्मीद आरक्षण को भी आर्थिक आधार पर प्रदान करने के लिए संविधान संशोधन विधेयक लाने के लिये भाजपा से की जाती है। जब मात्र 45 दिन के भीतर उच्चतम न्यायालय के आरक्षण रद्द करने के उक्त निर्णय को निष्प्रभावी बनाने के लिये संविधान संशोधन विधेयक लाया जा सकता है। तब अपने को जनता के प्रति उत्तरदायी व संवेदनशील कहने वाली सरकार को यह बताना चाहिए कि "सैद्धांतिक सर्वानुमति" होने के बावजूद महिलाओं के लम्बे समय से लम्बित आरक्षण के लिए कितने दिनों में संविधान संशोधन विधेयक संसद में प्रस्तुत किया जायेगा? ऐसी घातक सर्वानुमति (जैसा कि ऊपर विवेचना की गई हैं) से ज्यादा अच्छी तो बहुमत हो, जो भाजपा के पास है। इस बहुमत के द्वारा महिला आरक्षण विधेयक पारित करने का प्रयास भाजपा को करना चाहिए। असफल होने पर भी विपक्ष के दोहरे चरित्र को जनता के बीच सामने लाकर भाजपा सफल ही कहलायेंगी। 

               अब यह मत कहियेगा कि भाजपा 10 प्रतिशत आर्थिक आधार पर आरक्षण के प्रावधान का निर्णय पहिले ही ले चुकी है। वास्तव में सर्वण समाज को आर्थिक आधार पर आठ लाख से कम आमदनी वाले के 10 प्रतिशत सरकारी नौंकरियों व शैक्षिणक संस्थानों में प्रवेश देने पर आरक्षण का निर्णय लिया जरूर हुआ है। परन्तु वह अभी भी अपूर्ण है, क्योंकि वर्तमान संविधान में व उच्चतम न्यायालय के द्वारा प्रतिपादित सिंद्धान्त के रहते 50 प्रतिशत से अधिक का आरक्षण नही किया जा सकता हैं, जब तक इसकी अधिकतम सीमा में संविधान संशोधन द्वारा कोई परिर्वतन न कर दिया जावें।

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