राजीव खण्डेलवाल:- टोक्यो में चल रहे ओलंपिक में भारत को मिले पदक (चांदी व कांस्य) पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार सीधे संवाद (‘‘इंटरैक्ट‘‘) करके अथवा ट्वीट्स के माध्यम से खिलाड़ियों का उत्साह लगातार बढ़ाते जा रहे हैं। आमतौर पर मीडिया से सीधा संवाद ‘‘स्थापित‘‘ करने से ‘‘परहेज़‘‘ रखने वाले हमारे प्रधानमंत्री अन्य मामलों में ख़ासकर देश को उपलब्धि दिलाने वाली स्पर्धाओं व आयोजनों (इवेंट्स) में भाग लेने वाले व्यक्तियों से जितना सीधा संपर्क रखते हैं, उतना पूर्व में हमने कभी भी किसी प्रधानमंत्री को रखते हुए नहीं देखा है। ‘‘शासक‘‘ और ‘‘शासित‘‘ के बीच जीवंत, जीवट संपर्क को बढ़ाने के लिए निश्चित रूप से प्रधानमंत्री साधुवाद के पात्र हैं।
इसी क्रम में प्रधानमंत्री ने लोगों के सामने ‘‘आग्रह‘‘ की ‘‘भावनाओं‘‘ को देखते हुए ‘‘राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार‘‘ के नाम से राजीव गांधी के नाम को ‘‘स्थानापन्न‘‘ कर "हॉकी के पर्याय" बने "मेज़र ध्यानचंद" के नाम पर रखने के निर्णय की जानकारी ट्वीट करके दी है। जबकि देश प्रधानमंत्री से मेजर ध्यानचंद को और सम्मानित व गौरवान्वित करने के लिए उनके नाम को ‘‘प्रतिस्थापित‘‘ द्वारा नहीं बल्कि "भारत रत्न" के लिये ‘‘स्थापित‘‘ करने की उम्मीद लगाए हुए था? यह तो "भूखे को बासी रोटी" खिलाकर श्रेय लूटने जैसी बात हुई।जैसा कि इस देश में हमेशा से होता आया है, स्वागत और आलोचनाओं के फूल और कांटे बिछाने (बयान आने) शुरू हो गए हैं। अर्थात गिलास आधा खाली है या भरा है, इसका आकलन होना प्रारंभ हो गया है। उक्त निर्णय ऊपर से जितना आकर्षित करता है, उसकी गहराई में जाने पर ही आप यह महसूस कर पाएंगे कि उक्त निर्णय कितना "अधूरा" है और 'उत्साहित' व ‘‘सम्मान‘‘ करने के बजाय ‘‘उपहास‘‘ व ‘‘अपमानित‘‘ करने वाला है। कैसे? आगे देखते हैं।
आप जानते हैं कि खेल का देश का सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कार "राजीव गांधी खेल रत्न" पुरस्कार है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार देश का सबसे बड़ा ‘‘नागरिक‘‘ पुरस्कार ‘‘भारत रत्न‘‘ है, सेना की सर्वोच्च रैंक ‘‘फील्ड मार्शल‘‘ (जो एक सम्मान है), युद्ध के मैदान में ‘‘परमवीर चक्र’’, शांति के दौरान सैन्य सेवा में धैर्य व साहस के लिए ‘‘अशोक चक्र’’, सिनेमा जगत (फिल्मी कलाकार) का ‘‘दादा साहेब फाल्के’’, साहित्य क्षेत्र का ‘‘ज्ञानपीठ’’ इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों के सर्वोच्च पुरस्कार है। ‘‘हॉकी के जादूगर‘‘ कहे जाने वाले हॉकी का पर्याय बने मेजर ध्यानचंद का वास्तविक नाम *ध्यान सिंह* था। रात्रि में प्रकाश के अभाव में चंद्रमा की रोशनी में अभ्यास करने के कारण उनका नाम ध्यान चंद पड़ा। जहां तक देश द्वारा ओलंपियन ध्यानचंद को सम्मान देने की बात है, ऐसा नहीं है कि इस दिशा में पहले कोई भी कदम नहीं उठाया गया। पहला सार्थक कदम 1956 में देश का तीसरा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार 'पद्म भूषण' देकर किया गया। तत्पश्चात तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वर्ष 2012 में ध्यानचंद की ‘‘जयंती‘‘ 28 अगस्त को प्रत्येक वर्ष ‘‘राष्ट्रीय खेल दिवस’’ के रूप में मनाने की घोषणा करके की। क्या मेजर ध्यानचंद मात्र एक हॉकी खिलाड़ी ही थे? हिटलर की जर्मन नागरिकता व सम्मान देने के प्रस्ताव को ठुकराने वाले ध्यानचंद क्या देश को अभूतपूर्व, अपूरणीय योगदान देने के कारण एक सम्मानित नागरिक की हैसियत से सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘‘भारत रत्न‘‘ पाने के हक़दार नहीं है? "लाल गुदड़ियों में नहीं छुपते"। यहां ध्यान चंद के ‘‘हक़‘‘ से ज़्यादा देश के करोड़ों नागरिकों की सर्वसम्मत इच्छा, प्रसन्नता व आत्म संतुष्टि का भी सवाल है?
देश में हॉकी,जो कि वर्ष 1926 के पूर्व से खेली जा रही है, की पहचान विश्व में भारतीय खेल के रूप में क्या क्रिकेट की तुलना में ज़्यादा नहीं है? जिसका पूरा श्रेय ध्यानचंद को ही जाता है। क्रिकेट जो कि अंग्रेजों का खेल कहा जाता है, शायद अंग्रेजों की ग़ुलामी में रहने के कारण उस मानसिकता के कुछ अंश अभी भी शेष रहने से हमने ‘‘अंग्रेज़ियत खेल क्रिकेट‘‘ में तो तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वर्ष 2013 में (खेल दृष्टि से नहीं बल्कि 2014 में होने वाले आम चुनाव की दृष्टि से) नियम में परिर्वतन कर भारत रत्न दिया। जबकि तत्समय पीएमओ की स्वीकृति पहले ध्यानचंद के नाम पर मिल चुकी थी (एक आरटीआई एक्टिविसट हेमंत चंद दुबे की रिपोर्ट के अनुसार)। इसी को कहते हैं "अशर्फ़ियों की क़ीमत नहीं और कोयलों पर मुहर"। इसके पूर्व खेल में भारत रत्न दिए जाने का कोई नियम या प्रथा नहीं थी। आज भी विश्व का सबसे बड़ा पुरस्कार "नोबेल पुरस्कार" "खेल" को छोड़कर अन्य कई क्षेत्रों में है। पत्रकारिता, लेखनी, साहित्य, संगीत, कला, फिल्म, विज्ञान इत्यादि अनेकानेक क्षेत्रों में अपने-अपने स्वतंत्र सर्वोच्य पुरस्कार होने के बावजूद इन क्षेत्रों में कार्य करने वालो मे से कई सम्मानीय नागरिकों को भारत रत्न पुरस्कार से समय-समय पर नवाज़ा गया। परंतु विश्व में भारतीयता की पहचान का डंका बजाने वाली हॉकी के लिए विश्व ने दिये ‘‘अलंकरण‘‘ ‘‘हॉकी के जादूगर’’ को नज़रअंदाज़ कर सरकारों का मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न देने पर ‘‘ध्यान पूर्वक ध्यान‘‘ अभी तक क्यों नहीं गया, यह समझ से परे है। जबकि "ख़ुशबू को अत्तार की सिफ़ारिश की ज़रूरत नहीं होती"।
प्रधानमंत्री द्वारा लिया गया उक्त निर्णय ‘‘सम्मान‘‘ के बजाय मेजर ध्यानचंद के साथ-साथ खिलाड़ियों का ‘‘उपहास‘‘ और ‘‘अपमान‘‘ ज़्यादा दिखता है। जिस व्यक्ति (लीजेंड) को आप स्वयं देश के सर्वोच्च पुरस्कार भारत रत्न के योग्य नहीं मान रहे हैं, जिसकी न्यायोचित मांग पूरे देश में काफी समय से की जा रही है। तब उस (सरकार द्वारा) "असम्मानित‘‘ (भारत रत्न के लिए) व्यक्ति के नाम से आप दूसरों को ‘‘सम्मानित‘‘ कैसे महसूस कर व करा सकते हैं, यह एक बड़ा यक्ष प्रश्न है? यानी "हेड्स आई विन, टेल्स यू लूज़"। प्रधानमंत्री जब यह कहते हैं कि लोगों की आग्रह की ‘‘भावनाओं‘‘ के अनुरूप यह निर्णय लिया गया है, तो उनको यह भी बतलाना चाहिये कि उक्त खेल सम्मान का नाम राजीव गांधी हटाकर मेजर ध्यानचंद रखने के लिये कितने लोगों ने कब और कैसे उक्त आग्रह किया? और उससे "कम" संख्या में लोगों ने ध्यानचंद को भारत रत्न देने की वक़ालत की क्या?
आखिर भारत सरकार ध्यानचंद को भारत रत्न क्यों नहीं देना चाहती है, इसका ‘‘व्हाइट पेपर‘‘ जनता के बीच जारी होना चाहिए (क्योंकि इसके पूर्व सरकार में बैठे कई नुमाइंदे महत्वपूर्ण विषयों पर व्हाइट पेपर जारी करने की मांग करते रहे हैं), ताकि जनता उनके द्वारा चुनी गयी लोकप्रिय सरकार की उस भावना, तर्क व युक्तियुक्त कारण को समझ सके? तदनुसार देश की जनता का ‘‘ध्यान‘‘ ध्यानचंद को ‘‘भारत रत्न‘‘ दिलाने से भंग होकर हट जाएगा? ताकि ‘‘चंद‘‘ (‘ध्यान’ तो रहा/रहे नहीं?) ताली पीट कर "हांजी हांजी" कहने वाले "यस मैन" अपने को सही ठहरा सके।
अंत में शायद यह देश और ध्यानचंद का दुर्भाग्य ही कहलायेगा कि ब्रिटिश भारत को तीन ओलंपिक में एकमात्र पदक तीन-तीन बार "स्वर्ण" दिलाने वाले जादूगर ध्यानचंद ‘‘स्वाधीन देश‘‘ से स्वर्ण प्राप्त करने में तीन-तीन बार चूक कर ‘‘चांदी/कांस्य" का मेडल ही प्राप्त कर "मुट्ठी भर आसमान से ही संतोष" कर देश के कर्णधारो की ‘‘चांदी‘‘ कर दी। प्रथम 1956 में पदम विभूषण मिलने पर, फिर वर्ष 2012-13 में राष्ट्रीय खेल दिवस उनके नाम पर घोषित होने पर और तत्पश्चात सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न मिलने पर और आज राजीव गांधी खेल पुरस्कार का नामकरण उनके नाम पर होने पर। जिस प्रकार पुरूष व महिला हाॅकी टीमें गत विजेताओं को हराकर सेमीफाइनल में पहुंच कर स्वर्ण से चूक गईं, उसी प्रकार आज फिर ध्यानचंद स्वर्ण (भारत रत्न मरणोपरांत) से चूक गये। "कहते हैं कि ग़लती ख़ुद अंधी होती है लेकिन वह ऐसी संतान पैदा करती है जो देख सकती है"।
ऐसा लगता है ‘राजनीति’ का ‘‘खेला होवे’’ का कीड़ा, क्रीडा, (खेल) में ‘‘खेल खेल’’ में भी लगा दिया गया है। जहां तक खेल पुरस्कारों का नामकरण राजनेताओं के नाम पर होने का प्रश्न है, वहाँ समस्त राजनैतिक पार्टियों की सरकारों की भागीदारी रही है व वे सब एक ही प्लेटफार्म पर खड़ी हैं। इस प्लेटफॉर्म पर, एक फ़ारसी मुहावरे के अनुसार "हरचे आमद इमारते नो साख़्त" अर्थात जो आया उसने अपनी एक नयी इमारत तामीर की। जब भी जिसको मौक़ा मिला है, मौक़ा कभी छोड़ते नहीं है। यह अलहदा एक अलग विषय है, जिस पर पृथक लेख में कभी चर्चा करेंगे। इस देश में खेल नीति, स्वास्थ नीति, कृषि नीति, शिक्षा नीति, सांस्कृतिक नीति आदि अनेक नीति स्वतंत्र रूप से होकर विभिन्न मंत्रालय के मंत्रियों और सचिवालय द्वारा संचालित होती है! परंतु इन सब नीतियों को बनाने व धरातल पर उतारने में 'गुणवत्ता (मेरिट्स) की बजाए ‘‘राजनीति‘‘ हावी हो जाती है! इसलिए अभी भी आज राजनीति ‘‘खेल नीति‘‘ पर भी भारी पड़ रही है! जय हो राजनीति! 1,000 से अधिक "गोल" दागने वाले ध्यान चंद का 'सोना' (स्वर्ण पदक) शायद दाग(ने) के कारण सरकार ने ही "गोल" (गायब) कर दिया, आख़िर कब तक ? भारत रत्न की महत्ता प्रभुता सर्व कालीन स्वीकारिता व निष्पक्षता बनाए रखने के लिए ध्यानचंद को भारत रत्न देना ही होगा। यह बात "चंद" लोगों के "ध्यान" में आनी ही चाहिए जो निर्णय लेते हैं।