गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी का अचानक इस्तीफा जितना आश्चर्यचकित लिया हुआ निर्णय था, उससे भी कहीं ज्यादा आश्चर्यचकित करने वाला और बिल्कुल ही अनेपक्षित,अप्रत्याशित निर्णय उनके उत्तराधिकारी के चुनाव के रूप में भूपेंद्र पटेल की मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्ति की घोषणा भाजपा हाईकमान द्वारा नियुक्त पर्यवेक्षक नरेंद्र सिंह तोमर द्वारा करने पर हुई।
भाजपा वैसे इस तरह के निर्णय के लिए जानी जाती रही है। पूर्व में भी मुख्यमंत्रियों के चुनाव में कुछ इसी तरह के अनेपक्षित निर्णय भाजपा हाईकमान ने सफलतापूर्वक लिए हैं। वास्तव मैं भाजपा ने विधानसभाओं के आने वाले चुनावों में सत्ता व्यवस्था विरोधी भावना (एंटी इनकंबेंसी फैक्टर) तथा महामारी कोविड-19 से लड़ने की अव्यवस्था से उत्पन्न असंतोष से लड़ने के लिए चुनाव पूर्व मुख्यमंत्रियों को बदलने की नई नीति को अपनाया है, की सफलता का आकलन आगामी आने वाले विधानसभा चुनाव के परिणामों पर निर्भर करेगा । विधानसभा के आम चुनाव की पूर्व इस तरह की मुख्यमंत्री बदलने की सोच या कवायद सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी में ही की जा सकती है। कांग्रेस पार्टी सहित देश किसी भी पार्टी में इस तरह के साहसिक निर्णय की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। हां, कांग्रेस में ऐसा होना तभी संभव है, जब ऐसा व्यक्तित्व "गांधी" जैसी पारिवारिक पृष्ठभूमि लिए हो।भाजपा हाईकमान का उक्त निर्णय इस बात को पुनः सत्यापित करता है कि सरकार और संगठन के किसी भी पद पर बैठा हुआ नेता सिर्फ एक "कार्यकर्ता" ही है जिस प्रकार "संघे शक्ति: कलौ युगे" के मार्ग पर चलने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक "स्वयंसेवक" होता है। देश के राजनीतिक इतिहास में यह शायद पहला अवसर है जब एक ऐसे व्यक्ति को सीधे मुख्यमंत्री पद पर आसीन किया जा रहा है जो न तो पहले कभी मंत्री रहे हैं और जो मात्र 4 वर्ष पूर्व वर्ष 2017 में मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के राज्यपाल पद पर नियुक्ति किए जाने के कारण इस्तीफा देने से उत्पन्न रिक्त स्थान उपचुनाव में ऐतिहासिक मतों से (लगभग एक लाख से ऊपर) जीतकर पहली बार विधायक बने। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का इससे भी बड़ा एक उदाहरण आपके सामने है जो कभी विधायक ही नहीं बने, सीधे मुख्यमंत्री बने। लेकिन दोनों में मूल अंतर यह है कि उद्धव ठाकरे हिंदू सम्राट शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे राजनैतिक उत्तराधिकारी होने के नाते शिवसेना पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के कारण महाराष्ट्र में नहीं देश में उनका एक स्थापित नाम और उनकी स्थापित पार्टी है। जबकि भूपेंद्र पटेल के साथ ऐसी कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि नहीं थी और न ही "काम बोलता है" अथवा ऐसी अलंकृत राजनीतिक पहचान रही है। वे राजनीति में सिर्फ "कारपोरेशन" अहमदाबाद महानगर पालिका की स्टैंडिंग कमेटी के चेयरमैन तक ही सीमित रहे हैं। यद्यपि पूर्व में ऐसे कुछ उदाहरण अवश्य मिल सकते है, जो विधायक होने के बाद मंत्री बने बिना सीधे मुख्यमंत्री बन गए। जैसे मध्यप्रदेश में सुंदरलाल पटवा, शिवराज सिंह चौहान, हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर ,बिहार में राबड़ी देवी, और अभी हाल में ही उत्तराखंड मैं नियुक्त किए गए पुष्कर सिंह धामी आदि।
एक और बात के लिए भाजपा हाईकमान को बधाई दी जानी चाहिए कि वे इस तरह के अप्रत्याशित निर्णयों के फलस्वरुप परिवर्तन राज्यों के शीर्षस्थ स्तर पर बहुत आसानी से कर लेते हैं। और पार्टी में किसी तरह का मुखर असंतोष, विरोध या विद्रोह नहीं हो पाता है, जैसा कि ऐसी स्थिति में अन्य किसी भी दूसरी पार्टी में हो तो वहां विद्रोह पैदा हो जाता है। क्यों कि भाजपा का कार्यकर्ता "हाक़िम की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी कभी नहीं चलता"। और जिन प्रदेशों में कांग्रेस सत्ता में हैं, वहां किस तरह सिर फुटव्वल सड़क पर हाई कमांड के बार-बार समझौता करवाने के बावजूद "मैं भी रानी, तू भी रानी, कौन भरेगा पानी" की तर्ज़ पर चलती रहती है। देश की अन्य समस्त पार्टियों को भाजपा की इस "कला" को सीखने की आवश्यकता अपनी अपनी पार्टी के हितों के लिए जरूरी है। आम चुनाव के पूर्व मुख्यमंत्री बदलने की परिवर्तन की इस नीति को भाजपा द्वारा अपना कर चुनाव के पूर्व अभी तक तीन-तीन मुख्यमंत्री बदले गए जिनसे अन्य पार्टियों को उक्त यही सबक मिलता है और यह सीख लेनी भी चाहिए। अब अगला नंबर निश्चित रूप से "माल कैसा भी हो, हांक ऊंची लगाने वाले" शिवराज सिंह चौहान पर आकर टिक जाता है। उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद मध्यप्रदेश में आम चुनाव के पूर्व नेतृत्व परिवर्तन होना अवश्यंभावी दिखता है। एक तो भाजपा अभी तक आम चुनाव में जाने के पूर्व मुख्यमंत्री बदलने की नई नीति अपना रही है, जिसके परिणाम स्वरूप बदलाव आना लाजिमी ही है। दूसरे शिवराज सिंह को वैसे भी 15 वर्ष से अधिक मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुए हो चुके हैं, वर्तमान राजनीति में जहां परिवर्तन होना ब्रेकिंग न्यूज़ या आश्चर्य की बात नहीं होगी, बल्कि परिवर्तन न होना ही आश्चर्यजनक बात व ब्रेकिंग न्यूज़ होगी। "आख़िर काठ की हांडी को कितनी बार चूल्हे पर चढ़ायेगी" पार्टी? राजनीति का एक सर्वमान्य सिद्धांत हमेशा से यह रहा है कि वह हमेशा अनिश्चितताओ से भरी रहती है। भाजपा के इस कदम ने राजनीति के चरित्र की पुनः पुष्टि ही की है।