सुशासन बाबू? न ‘‘सु‘‘ न ‘‘शासन‘‘ सिर्फ ‘‘बाबू’’ रह गये।


राजीव खंडेलवाल           

बिहार के छपरा जिले में जहरीली शराब से अभी तक लगभग 70 से ज्यादा अकाल मृत्यु होकर काल के गाल में समा चुके हैं। ‘कालस्य कुटिला गतिरू’। आंकड़े इससे भी ज्यादा हो सकते है। बिहार सरकार पर विपक्ष द्वारा ऐसा आरोप लगाया जा रहा है कि सरकार संख्या को दबा रही है। पोस्टमार्टम किये बिना ही शवों को दफनाया जा रहा है। जहरीली शराब से देश में मौत की यह न तो पहली घटना है और न ही बिहार राज्य तक ही सीमित है। परन्तु बिहार के मुख्यमंत्री और समस्त राजनीति के रंगों को अपना कर स्वाद चख चुके सुशासन बाबू बने नीतीश कुमार की ‘‘क्षते क्षार-प्रक्षेपरू’’ रूपी दुर्भाग्यपूर्ण, मानव निर्मित प्रशासनिक लापरवाही व असफलता के कारण उक्त घटना घटी। इससे उत्पन्न आक्रात्मक आलोचनाओं की प्रतिक्रियात्मक बयान, कथन, भाव-भंगिमा नीतीश कुमार की जो आयी है, निश्चित रूप से वह न केवल ‘‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’’ की उक्ति के अनुरूप अकल्पनीय, असोेचनीय व अस्वीकार्य है, बल्कि भौंचक्का करने वाली भी है। एक चुने हुए जनप्रतिनिधि का जनता के प्रति जान-माल की सुरक्षा से लेकर उनकी समग्र विकास का दायित्व होता है से जनता द्वारा चुने गये मुख्यमंत्री से आम भुगत मान जनता को ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं की जा सकती है, जो लोकतांत्रिक जन-प्रतिनिधियों के स्थापित मान्य परसेप्शन के एकदम विपरीत है।

शराबबंदी के कारण अवैध शराब के उपभोग से हुई मृत्यु और शराबबंदी हो अथवा न, जहरीले शराब के खपत से हुई मृत्यु में अंतर है। यहां मूल प्रश्न जहरीले शराब के निर्माण, वितरण व उसके उपभोग का है न कि ‘‘शराबबंदी’’ का है, इसको समझना होगा। जिन प्रदेशों में शराबबंदी लागू नहीं है, क्या नीतीश कुमार वहां जहरीले शराब से हो रही मृत्यु को ‘‘बद अच्छा बदनाम बुरा’’ की तर्ज पर उचित ठहरा सकते हैं? इस घटना में सरकार की दो स्पष्ट असफलताएं सामने दिखाई दे रही है। प्रथम लागू की गई शराबबंदी को पूर्णतः लागू करने में राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति के बावजूद प्रशासनिक असफलता। द्वितीय जहरीले शराब के निर्माण को रोकने में सूचना तंत्र और प्रशासनिक तंत्र दोनों की बड़ी विफलता। 

अंततः एक मानव नागरिक की संलिप्तता, संलिगता व दोषी अपराधी, मनोवृत्ति, प्रवृत्ति के कारण ही कोई अपराध व आपराधिक वारदात घटती है। तो क्या सरकार हर अपराध के लिये यह कहकर कि ‘‘फिसल पड़े तो हर हर गंगे’’, अपने दायित्व से मुक्त हो सकती है कि जिस अपराधी व्यक्ति ने कानून तोड़ा है, उसका दुष्परिणाम वैसा आना ही है? अर्थात अपराध किया इसलिए अपराधी भुगते? अरे ‘‘जान है तो जहान है’’ सुशासन बाबू, जो जान से गया वह क्या भुगतेगा? भुगतना तो उसके अभागे परिवार को है। उक्त सिद्धान्त सुशासन बाबू ने वर्तमान जहरीली शराब के पीने से हुई मौत पर एक बार नहीं लगातार तीन बार विभिन्न अवसरों पर कहा है। ऐसी स्थिति में सुशासन बाबू का सुशासन तो दूर शासन का भाव ही खत्म होता दिखता है, विपरीत इसके कहीं न कहीं उनका अहम, घमंड परिलक्षित होता और ‘‘अंधे के आगे रो कर अपने दीदे खोने’’ वाला दिखता है। जब वे विधानसभा में अपने साथी बिहार के उपमुख्यमंत्री के साथ ‘‘मुस्कराते हुए’’, साथ ही ‘‘रौद्र रूप’’ के साथ पत्रकारों की ओर आमुख होते हुए वे कहते है ‘‘जो पियेगा वह मरेगा ही’’, तब मानवीय संवेदनाएं तो दूर-दूर तक तनिक भी दिखाई नहीं देती है। जब ‘‘रोम जल रहा था, नीरो बंसी बजा रहा था’’, वही हाल नीतीश कुमार का है।  

निश्चित रूप से तथ्यात्मक, तकनीकी और कानूनी रूप से नीतीश कुमार के कथन शाब्दिक रूप से सही होने के बावजूद, लोकतंत्र के लोकप्रिय चुने गये जननेता के रूप में उनका यह कथन अत्यंत निंदनीय, अस्वीकार योग्य व भर्त्सना योग्य है। उक्त वर्णित भाव भंगिमा लिए उक्त अविवेकपूर्ण कथन ‘‘अविवेकरू परमापदाम् पद्मरू’’ का लक्षण है, इस कारण उन्हें स्वयं पद पर बैठने का कोेई नैतिक अधिकार नहीं रह जाता है और न ही मृतक 70 लोगों की आत्मा राज्यपाल के शरीर में प्रवेश कर उन्हें कुर्सी पर चैन से बैठने देगी? राज्यपाल को  सरकार को तत्काल भंग कर देना चाहिए।

आखिर लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार का दायित्व होता क्या है? कानून व्यवस्था बनाये रखने से लेकर जनता जनार्दन का समुचित समग्र तथा संपूर्ण विकास के लिए विभिन्न कानूनों को विधानसभा में पारित करवा कर अपनी प्रशासनिक क्षमता का परिचय देते हुए भरपूर उपयोग कर कानूनों को धरातल के स्तर पर अधिकतम लागू करवाने का दायित्व आखिरकार सरकार अथवा उनके मुखिया मुख्यमंत्री की ही होती है। वह ‘‘तबेले की बला बन्दर के सिर’’ मढ़कर बच नहीं सकता। लागू किये गये कानूनों का जो नागरिक उल्लंघन कर अपराध करते है, उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई अवश्य की जानी चाहिए। परंतु नीतीश कुमार का यह तर्क नहीं कुर्तक है कि कानून का उल्लंघन कर एक नागरिक ने अपराध किया है तो मुआवजा का प्रश्न कहां उत्पन्न होता है? घटना में मरे व्यक्तियों जो प्रायः निर्बल व अत्यंत गरीब वर्ग के है, को मुआवजा दे देने से आपकी शराबबंदी की नीति गलत नहीं हो जाती है, न ही उसके औचित्य पर प्रश्न खड़ा हो जाता है। यह पूर्णतः मानवीय संवेदनशीलता का मामला है। भारतीय संस्कृति में जहां व्यक्ति कितना ही बुरा क्यों न हो, उसकी मृत्यु हो जाने पर सिर्फ उसके गुणों का बखान होता है? अवगुणों का नहीं? क्यों इस संस्कृति की इस पहचान, छाप को भी नीतीश कुमार भूल गये?

जेपी (जयप्रकाश नारायण) की कार्यस्थली से निकले नेता नीतीश कुमार शायद यह भूल गये है। वास्तव में इस देश में हर्जाना एक राजनैतिक टूल बन गया है, जहां घटना की गंभीरता व उससे उत्पन्न आक्रोंश को कम करने के लिए घटनाओं की प्रकृति को देखते हुए मानव जीवन के मूल्यों को भी विभिन्न कीमतों द्वारा निर्धारित कर तदानुसार लाखों रुपए से करोड़ों रुपयों में किया जाकर मुआवजे की ‘रेवड़ी’ बांट दी जाती है। नीतीश कुमार केजरीवाल की ‘‘सब धान बाइस पसेरी’’ वाली रेवड़ी नीति से असहमत हो, तब भी मुआवजा बांटना रेवड़ी नहीं है, इतना सुशासन बाबू को समझना होगा।

बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री, सुशील मोदी की उक्त मांग दुखद घटना पर एक सधी हुई प्रतिक्रिया के लिए उनकी प्रशंसा अवश्य की जानी चाहिए। प्रथम उन्होंने स्पष्ट कहा कि मुख्यमंत्री की नियत पर कोई शक नहीं है। बेशक शक की गुंजाइश की कोई संभावना भी नहीं है, क्योंकि बीते छः सालों में ढाई करोड़ लिटर अवैध शराब जब्त की जाकर, साढे छः लाख से ज्यादा लोगों की गिरफ्तारी हुई है। दूसरा यदि कोई नीति (शराबबंदी) असफल हो रही है, तो उस पर पुनर्विचार अवश्य किया जाना चाहिए। 

कहते हैं न कि ‘‘संगत का भी असर‘‘ होता है, जिसका आचरण, व्यवहार, कार्य क्षमता व कार्य कुशलता पर बड़ा व गहरा प्रभाव पड़ता है। ऐसा लगता है कि, ऊक्त उक्ति बिहार के मामले में सही सिद्ध होती दिख रही है। जहरीली शराब की हृदय हिला देने वाली जो घटना घटित हुई, कही वह नीतीश कुमार की एक अच्छी संगत एनडीए छोड़ने का दुष्परिणाम तो नहीं है? और उसके आगे मुआवजा न देने का अड़ियल अमानवीय रवैया से तो निश्चित रूप से आरजेडी की ‘‘राम मिलाई जोड़ी’’ की संगत का स्पष्ट असर दिखता है। इसलिए नीतीश कुमार को समस्त दृष्टिकोण से इस घटना से उत्पन्न अनेक प्रश्नचिन्हों पर गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श करना चाहिए। सिर्फ इसलिए कि उनकी शराबबंदी की नीति 100 प्रतिशत सही है, और ये घटनाएं हर प्रदेश में होती रहती है, इसलिए इस नीति पर पुनर्विचार नहीं किया जायेगा, समयोचित नहीं होगा। ‘‘जो जैसा करेगा, वैसा ही भरेगा’’ इस सिद्धांत को यदि नीतीश कुमार बेचारे, निरीह, मजबूर अपराधी मृतकों पर लागू कर रहे है, तो कभी स्वयं पर लागू कर सोचिये? दूध का दूध व पानी का पानी हो जायेगा। सत्य को असभ्य तरीके से कहना भी सत्य का अपमान होकर, सामान्य लोगों के गले में नहीं उतरेगा।

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